SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैराग्योपदेश २०६ रहा है और उनसे मीठा रहता हुवा भी धीरे धीरे उनका द्रव्य हरण कर अपने लिए नए बंगले व मोटरें खरीदता है । उनकी प्राणप्रिय प्रियाओं और बच्चों का हिस्सा छीनकर उनको टुकड़ों का मोहताज कर देता है ? बिचारों के बदन पर जाड़े कपड़े भी नहीं रहने पाते । तू उन्हीं के धन पर मौज उड़ाता है एवं उनकी मूर्खता व अज्ञानता का लाभ उठाता है लेकिन विकराल काल तेरी इंतज़ार कर रहा है । फिर तेरे ये बंगले व मोटरें तो यहीं रह जायगी परन्तु तेरे काले कारनामें तेरे साथ जावेंगे और तुझे अनेक तरह के कष्ट देंगे। जन्म से अंधे, लंगड़े, बहरे, कोढ़ी व टीबी के रोगी और किसी धरती में से नहीं पाते हैं, पापी ही तो मरकर उस दशा को पाते हैं। ___माना हुवा सुख-उसका परिणाम प्रात्मानमल्पैरिह वंचयित्वा, प्रकल्पितैर्वा तनुचित्तसौख्यैः । भवाधमे कि जन सागराणि, सोढासि ही नारकदुःखराशीन १२ ___ अर्थ हे मनुष्य ! शरीर और मन के कल्पित सुखों द्वारा (जो कि बहुत ही कम हैं,) इस भव में तेरी आत्मा को ठग कर अधम भवों में सागरोपम तक नारकी के दुःखों को तू सहन करेगा ।। १२ ।। उपजाति विवेचन—मनुष्य भी एक विचित्र प्राणी है। उसके सुख के साधनों और आशाओं का पार ही नहीं है । जिन्हें वह सुख मानता है थोड़े काल बाद वे ही दुःख के कारण बन जाते हैं। भूख से दुःखी था तो खूब पेट भर कर स्वादिष्ट
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy