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________________ २०० अध्यात्म-कल्पद्रुम उस पदार्थ का ( धर्म का ) रंजन कर जो संसार समुद्र में गिरते हुए तेरे निर्बल आत्मा का संरक्षण करने में सशक्त है ॥ ४ ॥ वसंततिलका विवेचन - हे अकेले जन्मने व मरने वाले आत्मा ! तू दुनियां को खुश करने का काम किस लिए करता है इससे तुझे क्या लाभ होने वाला है । तू इस फालतू काम को छोड़कर उत्तम धर्म को प्रसन्न रखने का प्रयत्न कर जो तुझे संसार समुद्र में गिरने व डूबने से बचाने वाला है । दुनियां के सामने तरह तरह के वेष परिवर्तन करके अपने आपको साधारण जनता से ऊंचा मानने का जो तेरा अभिमान है और उस अभिमान की पुष्टि के लिए सबके देखते हुए तेरे आचरण आहार-विहार जुदे रहते हैं और एकांत में या अपने समूह में जुदे रहते हैं इन हाथी के दो तरह के दांतों से जो खाने के और व दिखाने के और होते हैं इनसे तुझे कोई लाभ नहीं होने वाला है। तरह तरह के पद, छप्पय कविता, कथा, आदि कहकर बाहरीरूप से दुनिया के सामने जो तू विद्वान या वक्ता बनने का ढोंग किये फिरता है और तेरे अंदर की तो तू ही जानता है या परमात्मा जानता है कैसी दशा है ? इस बाहरी लोकरंजन से तू अपने आपको मत ठग, धर्म कर । मद त्याग और शुद्धवासना विद्वानहं सकललब्धिरहं नृपोऽहं, दाताहमद्भूतगुणोऽहमहं गरीयान् । इत्याद्यहंकृतिवशात्परितोषमेषि, नो वेत्सि कि परभवे लघुतां भावित्रीम् ।। ५ ॥
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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