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________________ १८६ अध्यात्म-कल्पद्रुम काया को भी दुश्मन बनाता है। ऐसे तीन शत्रुओं से हराया गया तू स्थान स्थान पर विपत्तियों का भाजन होकर क्या करेगा ? ॥ ६ ॥ वंशस्थ विवेचन—एक शत्रु दूसरे दो और शत्रुओं को बढ़ाता है ऐसे शत्रु का विश्वास नहीं करना चाहिए । मन जब अपने वश में नहीं होता है तब वह सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है और अपने स्वभाव के कारण वचन व काया को भो भड़का कर शत्रु बना देता है इस तरह से तीन शत्रुओं से आत्मा को भय बना रहता है । इन तीनों शत्रुओं से हारा हुवा तू (आत्मा) पद २ पर विपत्तियों का पात्र क्यों बनता है अर्थात् इन तीनों से कष्ट क्यों पाता है। यदि अकेले मन को ही वश में कर लेता है तो अन्य दो भी तेरे शत्रु नहीं बनेंगे और तुझे भी कष्ट नहीं मिलेगा अतः मन को ही वश में करने का प्रयत्न कर। इस एक को जीतने से वचन काया भी जीते गए जान। मन के.लिए उक्ति रे चित्त वैरि तव किं नु मयापराद्धं, यदुर्गतौ क्षिपसि मां कुविकल्पजालैः । जानासि मामयमपास्य शिवेऽस्ति गंता, तत्कि न संति तव वासपदं ह्यसंख्याः ॥ १० ॥ अर्थ हे चित्त वैरि ! मैंने तेरा क्या अपराध किया है कि तू मुझे कुविकल्प जाल से बांधकर दुर्गति में फेंक देता है ? क्या तुझे ऐसा विचार आता है कि यह जीव मुझे छोड़कर
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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