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________________ शास्त्राभ्यास और बरताव १७५ अर्थ हे आत्मा ! तू भी गजब का साहसी है कारण कि भविष्य में लंबे काल तक होने वाले चारों गतियों के दुःखों को ज्ञानचक्षु से देखता हुवा भी उनसे डरता नहीं है, वरन विपरीत आचरण करता हुवा उन दुःखों के नाश का ज़रा भी उपाय नहीं करता हे ॥ १६ ॥ वसंततिलका विवेचन—जो मनुष्य देखते हुए भी जानबूझकर अग्नि कुण्ड में, जलाशय में, नदी में या समुद्र में कूदता है वह साहसी तो है साथ ही महामूर्ख भी है। उसके उस साहस का परिणाम मुत्यु के सिवाय और कुछ नहीं है । इसी तरह से शास्त्रज्ञान रूप आंखों द्वारा चारों गतियों के दुःखों को देखता हुवा या संसार के स्वरूप को जानता हुवा भी जो उन दुःखों के नाश का उपाय नहीं करता है वह मूर्ख-साहसी है। मानव भव में ऐसी सुविधा मिल सकती है कि प्राणी सुख से आत्म कल्याण कर सकता है, लेकिन कब ? जब कि आत्मदशा का भान हो । शरीर व उसमें व्याप्त वस्तु (आत्मा) को अलग देखा जाय, दोनों के स्वरूप को पहचाना जाय, दोनों की गति का विचार किया जाय इसी का नाम "तत्त्व संवेदन ज्ञान" है जिससे हेय, (छोड़ने योग्य) ज्ञेय, (जानने योग्य) उपादेय (ग्रहण करने योग्य) का अंतर समझा जा सकता है। यह प्राणी अनंत भवों से ऐसे कर्म परिणामों में फंसा हुवा है कि उसे अपने हिताहित का भान ही नहीं हो रहा है वह सांसारिक सुख दुःख के कारणों का भेद नहीं कर सकता
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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