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________________ शास्त्राभ्यास और बरताव १६७ तोबा व्यथाः सुरकृता विविधाश्च यत्राक्रन्दारवैः सततमभ्रभृतोऽप्यमुष्मात् । किं भाविनो न नरकात्कुमते बिभेषि, यन्मोदसे क्षणसुखैविषयैः कषायी ॥ ११ ॥ युग्मम् ।। अर्थ-जिस नरक की दुर्गंधि के एक सूक्ष्म भाग से (इस मनुष्य लोक के) पूरे नगर की मृत्यु हो जाती है, जहां सागरोपम से मापा जाने वाला आयुष्य निरुपक्रम होता है, जिसका स्पर्श करवत से भी बहुत अधिक कर्कश है, जहां सर्दी गर्मी का दुःख यहां (मनुष्यलोक) की अपेक्षा अनंतगुणा है जहां देवों द्वारा की जाने वाली इतनी पीड़ाएं होती है कि उनके चीत्कार या पानंद के द्वारा आकाश भर जाता है इस प्रकार की नरक गति तुझे भविष्य में मिलेगी। ऐसे विचार से भी हे कुमति तुझे डर नहीं है क्योंकि तू कषाय करके थोड़े समय सुख देनेवाले विषयों का सेवन करके आनंद मनाता है ॥१०-११ ॥ वसंततिलका विवेचन-नरकों में दुर्गंध इतनी प्रबल होती है कि उसमें से यदि एक अणुमात्र दुर्गंध भी मनुष्यलोक में आ जाय तो सारे नगर के प्राणी क्षणमात्र में मर जाएं !! मानवी आयुष्य तो क्षय, महामारी आदि रोगों से या शस्त्राघात से नष्ट हो जाता है अतः सोपक्रम कहलाता है (बीच में नष्ट होने वाला) परन्तु नरक के जीवों का आयुष्य किसी भी दशा में नहीं. टूटता है। शरीर के विभाग हो जाने पर भी फिर से वे पारे की तरह जुड़ जाते हैं । मनुष्य का आयुष्य तो वर्षों में गिना जाता
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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