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________________ शास्त्राभ्यास और बरताव होगा जैसा कि गाय का दूध निकाल कर कुत्तों को चटा दिया जाय । अतः धर्मशास्त्रों से ऐसा सार निकाल कि पुनर्जन्म ही न हो । मात्र मस्तिष्क मार्जन करने वाले ज्ञान की अपेक्षा आत्म परिणतिमत् ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए । शास्त्र अभ्यास करके संयम रखना धिगागमैर्माद्यसि रंजयन् जनान्, नोद्यच्छसि प्रेत्यहिताय संयमे । दधासि कुक्षिभरिमात्रतां मुने, क्व ते क्व तत् क्वैष च ते भवांतरे ६ __अर्थ हे मुनि ! तू धर्म शास्त्रों द्वारा लोक रंजन करके तो खुश होता है परन्तु अपने स्वयं के प्रात्म हित के लिए प्रयत्न नहीं करता है, अत: तुझे धिक्कार है ! तू तो केवल पेट भरने की कला को हो धारण किए हुए है, परन्तु हे मुनि ! परभव में तेरे वे आगम कहां जाएंगे, तेरा वह लोक रंजन कहां जाएगा और तेरा यह संयम कहां जाएगा ? ॥६॥ उपजाति विवेचन—संसार में एक से एक बढ़कर कवि, कथाकार, कलाविद व शास्त्रज्ञ मौजूद हैं । एक की कीर्ति दूसरा छीन लेता है, पहले वाला निस्तेज होता है, दूसरा गौरव अनुभव करता है लेकिन फिर उस दूसरे से भी कोई तीसरा विशेष गुणवान प्रकट होता है और वह दूसरा निस्तेज हो जाता है यह क्रम तो चलता ही रहता है अतः कीर्ति के लोभ से या मान की भूख से अधिक कष्ट परिसह सहन न करता हुवा तू लोक रंजन छोड़कर, आगमों द्वारा आत्महित कर ले ।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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