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________________ १५८ अध्यात्म-कल्पद्रुम बन रहा हूं परन्तु वास्तव में वह उन्नत की अपेक्षा अवनत बन रहा है । उसका आध्यात्मिक पतन हो रहा है अतः जो शास्त्र पढ़कर स्वप्रशंसा या स्वपूजा चाहता है वह भूल करता है। ऐसे पंडित का शास्त्राभ्यास उसके स्वयं के लिये क्या लाभकारी हुवा । ऐसी आखें क्या काम की जो कि पतंगिए की तरह से जान बूझकर प्राणांत कराती हों ? अतः जो. स्वपूजा के लिए जैनशास्त्र पढ़ते हों उन्हें सोचना चाहिए कि शास्त्ररूपो आंखों से नरक निगोद को देखकर उनसे बचा जा सकता है, मोक्ष साधा जा सकता है । परलोक हित को बुद्धि रहित-अभ्यासियों को मोदन्ते बहुतर्कतर्कणचणाः केचिज्जयाद्वादिनां, काव्यैः केचन कल्पितार्थघटनैस्तुष्टाः कविख्यातितः । ज्योतिर्नाटकनीतिलक्षणधनुर्वेदादिशास्त्रैः परे, ब्रूमः प्रेत्यहिते तु कर्मणि जडान् कुक्षिभरीनेव तान् ॥४॥ अर्थ-कितने ही अभ्यासी नाना तरह के तर्क वितर्को के विचारों में प्रसिद्ध होकर . वादियों को जीतकर आनंद मानते हैं, कितने ही कल्पना शक्ति से काव्यों की रचना कर कवि तरीके प्रसिद्धि प्राप्त कर आनंद मानते हैं, कितने ही ज्योतिषशास्त्र, नाट्यशास्त्र, नीतिशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र और धनुर्वेद आदि शास्त्रों के अभ्यास के द्वारा प्रसन्न होते हैं, परन्तु यदि वे आते भव के लिए हितकारी कार्यों से उदासीन हों, लापरवाह हों तो हम उन्हें पेट भरने वाले ही कहते हैं ॥ ४ ॥ शार्दूल विक्रीडित
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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