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________________ १५६ अध्यात्म-कल्पद्रुम प्राणी की व्याधियां नष्ट नहीं होती हैं तो फिर उसका जीवित रहना दुर्लभ है वह अवश्य ही मरने वाला है ऐसा जानना चाहिए। उपजाति विवेचन-व्यवहारिक दृष्टि से जैसे आठ मास का कीचड़ श्रावण भादव में हुई मूसलाधार बारिश के प्रवाह से बह जाता है वैसे ही आत्मा में आया हुवा प्रमादरूपी मैल भी शास्त्राभ्यास से या शास्त्र सिद्धान्त के सतत् श्रवण से बह जाता है, यदि इतना होने पर भी आत्मा का मैल नहीं धुलता है तो जानना चाहिए कि इस प्राणी का आत्मरोग असाध्य है, एवं यह दूर भव्य है या मुमुक्षु नहीं है। शारीरिक व्याधियों के लिए ताम्रभस्म, लोहभस्म या पारा भस्म आदि देने पर भी रोग शांत न होता हो तो समझना चाहिए कि यह रोगी बच नहीं सकता है वैसे ही सिद्धान्त रस का पान कराने पर भी जिस आत्मा में जागृति नहीं आती है या अपने आपको पहचान कर प्रमाद रूपी कीचड़ को धोने की इच्छा पैदा नहीं होती है वह मुमुक्षु कैसे हो सकता है ? यदि मोक्ष की इच्छा जागृति में हो तो उसके लिए प्रयत्न अवश्य ही होता है प्रमाद को दूर करने का अभ्यास किया जाता है। प्रमाद आठ हैं १. संशय, २. विपर्यय, ३. राग, ४. द्वेष, ५. मतिभ्रंश, ६. मन वचन काया का दुःप्रणिधान, ७. धर्म का अनादर, ८. अज्ञान । इन आठ के अतिरिक्त पांच प्रकार से भी प्रमाद गिना जाता है मद्य, विषय, कषाय, विकथा व निद्रा।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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