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________________ कषायत्याग १४६ कषाय करने से एक ही साथ नष्ट हो जाता है । हे मूर्ख ! अत्यन्त प्रयत्न करके प्राप्त किये हुए स्वर्ण को एक फूंक से क्यों उड़ा देता है ।। १५ ।। वंशस्थ विवेचन – चौरासी लाख जीवायोनि में भटकते हुए कभी किसी भव में इस आत्मा को थोड़ा थोड़ा धर्म प्राप्त होता है अथवा इस मानव भव में की जाने वाली धर्म क्रियाओं या तपस्याओं से थोड़ा थोड़ा धर्म प्राप्त होता है लेकिन कषाय करने से वह एक ही साथ नष्ट हो जाता है । जैसे नियारिया या स्वर्ण अन्वेषक स्वर्ण के रजकणों को महान प्रयत्न से एकत्रित करता है लेकिन कोई अज्ञानी भूल से उन कणों को एक ही फूंक से नष्ट कर देता है वैसे तू भी श्रुत चारित्र लक्षण धर्मकण को कषाय रूप फूंक से उड़ामत देना, अर्थात कषाय मत करना । कषाय से होती हुई हानि की परम्परा शत्रूभवन्ति सुहृदः, कलुषीभवन्ति, धर्मा, यशांसि निचितायशसीभवन्ति । स्निह्यति नैव पितरोऽपि च बांधवाश्च, लोकद्वयेऽपि विपदो भविनां कषायैः ॥ १६ ॥ अर्थ – कषाय करने से मित्र, शत्रु बन जाता है, धर्ममलीन हो जाता है, यश अपयश में बदल जाता है, माता पिता, भाई या स्नेहीवर्ग भी प्रेम नहीं रखते हैं तथा इस लोक और परलोक में प्राणी को विपत्तियां आती हैं ।। १६ ।। वसंततिलका
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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