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________________ १४२ अध्यात्म-कल्पद्रुम डाक्टर को मित्र समझ रहा है जब कि वास्तव में पहला मित्र है और दूसरा शत्रु है । ठीक इसी तरह से आत्मा का घात करने वाले काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष ये छः शत्रु हैं । अतः यदि तू शत्रुनों पर क्रोध करना चाहता है तो इन छ: पर क्रोध कर और जैसे तुझे कभी २ अपने माता, पिता, गुरु आदि हितैषी पर क्रोध आता है और तू अपने इन मित्रों पर क्रोध करना चाहता है तो ऐसे ही तेरे मित्र और हैं उन पर क्रोध कर । ये मित्र वे हैं जो कर्मों का नाश करते हुए उपसर्ग करते हैं सारांश यह है कि कोई बुद्धिमान अपने हितैषी पर क्रोध नहीं करता है केवल शत्रुनों पर ही करता है । माया निग्रह पर उपदेश श्रधीत्यनुष्ठानतपः शमाद्यान्, धर्मान् विचित्रान् विदधत्समायान् । न लप्स्यसे तत्फलमात्मदेहक्लेशाधिकं तांश्च भवांतरेषु || ११|| अर्थ - शास्त्राभ्यास, धर्मानुष्ठान, तपस्या, राम श्रादि अनेक धर्म के कार्य यदि तू माया सहित करता है, उनसे तुझे शरीर कष्ट के सिवाय परभव में कुछ भी फल नहीं मिलने वाला है और वे धर्म भी परभव में नहीं मिलने वाले हैं ॥११॥ उपजाति विवेचन – बाह्यतप करना आसान है, साधु का वेष धारण करना आसान है प्रोली या उपधान करना भी किसी २ के लिए आसान हो सकता है, परन्तु मायारहित होना नितांत कठिन है । यश-कीर्ति की लोलुपता से मायासहित धर्मोपदेश
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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