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________________ कषायत्याग १३५ उतारना चाहिए। क्रोध के कारणों से दूर रहने के लिए सतत् जागृत रहना चाहिए । क्रोध के वशीभूत होकर परशुरामजी ने अनेक बार पृथ्वी को न क्षत्री किया, जब कि इसे सुभूम राजा ने नि ब्राह्मी किया। क्रोध के द्वारा आत्मा अनंत काल तक नरकादि में भटकता है, एवं यहां जीवित रहते हुए भी अपने ही घर में जहरीले सर्प की तरह से उसका परिवार उससे डरता रहता है अतः क्रोध आदि न करना चाहिए। मान-अहंकार त्याग पराभिभूतौ यदि मानमुक्ति, स्ततस्तपोऽखंडमतः शिवं वा । मानातिदुर्वचनादिभिश्चेत्तपः क्षयात्तन्नरकादिदुःखम् ॥ २ ॥ वैरादि चात्रेति विचार्य लाभालाभौ कृतिन्नाभवसंभविन्याम् । तपोऽथवा मानमवाभिभूता, विहास्ति नूनं हि गतिद्विधैव ॥३॥ अर्थ पराभव की स्थिति में यदि मान का त्याग होता है तो वह अखंड तप है, मोक्ष है । दुर्वचन से यदि मान उत्पन्न होता है तो तप का क्षय होता है व नरकादि का कष्ट होता है। इस भव में भी वैर विरोध होता है अतः हे पण्डित ! हानि लाभ का विचार करके जब भी संसार में पराभव का समय उपस्थित हो तब तप अथवा मान दोनों में से एक का पक्ष कर। इस संसार में ये दो ही रास्ते हैं ॥ २॥ ३ ॥ __उपजाति विवेचन-जब कोई अपमान करता हो या कटु शब्द कहता हो उस वक्त आवेश में न आने वाले विरले ही होते हैं। उन शब्दों को सुनकर अपनी कसौटी करनी चाहिए कि .
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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