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________________ विषय प्रमाद १२७ सुख के लिए सेवित विषयों में दुःख विभेषि जंतो यदि दुःखराशेस्तदिद्रियार्थेषु रति कृथा मा । तदुद्भवं नश्यति शर्म याक्, नाशे च तस्य ध्रुवमेव दुःखम् ।।७।। अर्थ हे प्राणी यदि तू दुःख समूह से भयभीत होता है तो, इन्द्रियों में आसक्त न हो। उनसे उत्पन्न हुवा सुख तो शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और वह नष्ट हुवा नहीं कि फिर तो दीर्घ कालतक दुःख ही दुख है ।। ७ ॥ विवेचन–यदि हमें अनेक प्रकार के दुःख समूह से डर लगता हो तो, उनके कारण भूत इंन्द्रियों के स्पर्श, रस, गंध आदि विषय हैं एवं उन विषयों के पोषण में हम लुब्ध रहते हैं या हमारी उनमें आसक्ति है उसको दूर करना चाहिए तभी दुःखों से दूर रहा जाएगा। वे इन्द्रिय जनित सुख अल्पकालीन हैं और उनके नष्ट होने पर फिर दुःख ही दुःख है । संसार की लुभावनी वस्तुओं में हमारा मन इतना चिपका हुवा है कि इनको छोड़ना तो दूर रहा, इनको नाशवान और दुःखदायी मानने का विचार भी नहीं पाता है । यह तो निश्चित है कि इस शरीर सहित तमाम चीजों को यहीं छोड़कर जाना पड़ेगा लेकिन जाने से पहले हमारा मन इनसे दूर हो गया, या त्याग की ओर झुक गया तब तो वह ‘जाना सुखकर होगा लेकिन यदि इनको त्यागने के विचारों के बजाय अधिक ममता व आसक्ति की रही तो वह जाना दुःखकर होगा।
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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