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________________ ११२ अध्यात्म-कल्पद्रुम जीव और सूरिजी की बातचीत दुष्टः कर्मविपाकभूपतिवशः कायाव्हयः कर्मकृत्, बद्ध्वा कर्मगुणैर्ह र्षिकचषकः पीतप्रमादासवम् । कृत्वा नारकचारकापदुचितं त्वां प्राप्य चाशुच्छलं गंतेति स्दहिताय संयमभरं तं वाहयाल्पं ददत् ॥ ५ ।। अर्थ शरीर नाम का नौकर; कर्म विपाक नामक राजा का दुष्ट सेवक है, वह तुझे कर्मरूपी रस्सी से बांधकर इन्द्रिय रूपी जाम (शराब के पात्र) द्वारा प्रमाद रूप मदिरा पिलाएगा। इस तरह से तुझे नरक के दुःख सहने का पात्र बनाकर वह कोई बहाना बनाकर भाग जाएगा; अतः तेरे स्वयं के हित के लिए उस शरीर को अल्प-अल्प मात्रा (आहार) देकर संयम के भार को तू सहन कर ।। ५॥ शार्दूलविक्रीडित विवेचन-एक कर्म विपाक नामक राजा, चतुर्गति नामा नगरी में राज्य करता है। इस राजा के अनेक सेवक हैं उनमें से शरीर भी एक सेवक है। राजा प्रतिदिन कचहरी भरता है, उसे एक दिन इस जीव की याद आ गई और उसने अपने सेवकों को प्राज्ञा दी कि जीव को जेल में डाल दो, नहीं तो शायद वह मोक्ष नगर में चला जाएगा जहां मेरी पहुंच भी नहीं है । शरीर नामक सेवक ने तैयार होकर राजा से कहा कि जीव को काबू में करने के लिए रस्सी की आवश्यकता पड़ेगी। राजा कर्म विपाक ने कहा कि "अरे शरीर ! तू क्यों घबराता है ? अपनी प्रायुधशाला में कर्म
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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