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________________ १०० अध्यात्म-कल्पद्रुम बराबर है । जरा स्पष्ट देखिए कि यदि कोई खूब पाप व्यापार करके धन कमाता है और सोचता है कि यदि धन मिलेगा तो धर्म में लगाऊंगा । मान लो उसे धन तो मिल गया लेकिन उसकी बुद्धि धर्म की तरफ से बदल गई या सांसारिक कई कार्य उपस्थित हो गए या मृत्यु हो गई तो वह कमाया हुआ धन तो धर्म में लगा नहीं लेकिन उसे उपार्जन करते हुए वह पाप तो उसके पल्ले पड़ ही गया अतः शास्त्रकारों ने कहा है कि धर्म के लिए पापकारी धन कमाना अनुचित है । इसका अर्थ यह नहीं है कि मंदिर, उपासरे ज्ञानशाला बनाने में पाप है । तात्पर्य तो यह है कि येन केन प्रकारेण धर्म कमाते हुए यह सोचना कि अभी तो चाहे जैसे धन कमा लें, बाद में धर्म कर लेंगें । यदि द्रव्य है, तो शुभ कामों में लगाना चाहिए । यद्यपि भावस्तव की अपेक्षा यह प्रति शुद्ध तो नहीं है फिर भी शुद्ध तो है ही चाहे लंबे काल में ही हो मोक्ष देने वाला तो है ही । अत: द्रव्यस्तव की अपेक्षा भावस्तव श्रेष्ठ हैं । गृहस्थ धनवान, सदुपयोग के लिए द्रव्यस्तव करे और भावना सर्व त्याग की रखे व आचरण भी वैसा करे । मिले हुए धन का खर्च कहाँ करना चाहिए क्षेत्रवास्तु धनधान्य गवाश्वर्मेलितैः सनिधिभिस्तनुभाजाम् । क्लेशपाप नरकाभ्यधिकः स्यात्को गुणो न यदि धर्म नियोगः || ५ || श्रर्थखेत ( जमीन, खेती) वस्तु ( घर आदि वस्तुएं ) धन, धान्य, गाय, घोड़े और धन के भंडार जो हे शरीरधारी ! तूने प्राप्त किए हैं उनका उपयोग यदि धर्म के लिए नहीं
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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