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________________ अध्यात्म-कल्पद्रुम भविष्य की पीड़ाओं को विचार कर मोह कम करो विमुह्यसि स्मेरदृशः सुमुख्या, मुर्खक्षणा दीन्यभिवीक्षमाणः । समीक्षसे नो नरकेषु तेषु, मोहोद्भवा भाविकदर्थनास्ताः || ६ || ८२ अर्थ — विकसित नयन वाली, और सुन्दर मुख वालो स्त्रियों के नेत्र, मुख आदि देखकर तू मोहित होता है परन्तु उनके द्वारा प्राप्त हुए मोह के कारण भविष्य में होने वाली नरक की यंत्रणा को तूं क्यों नहीं देखता है ? ।। ६ ।। उपजाति 1 विवेचन – स्वादिष्ट एवं सरल मधु पर मक्खियां भिनभिनाती हैं, उनकी दृष्टि अभी उस दशा पर नहीं जा रहीं है जब कि उनके पैर व पंख उसमें चिपक जावेंगे और थोड़े समय का रसना इन्द्रिय का स्वाद या मधु के प्रति का मोह उनके मृत्यु का कारण बनेगा । हे प्राणी ! तेरी दशा भी उन मकोड़ों जैसी होगी जो कि बासुन्दी ( रबड़ी) या जलेबी के रस का पान करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं । जिनके अंगों में तू अभी लुभायमान हो रहा है उनके कारण, उनके मोहावर्त में फसने के कारण, भावी नरकादि की पीड़ा का विचार कर और सावधान हो जा । पके हुए, पीले, मधुर रस से भरे हुए ग्रामों को देखकर तू लुभाता है लेकिन रस निकालने के पश्चात छिलके और गुठलियों पर भिनभिनाती हुई मक्खियों से वासित उन ग्रामों पर घृणा करता है । जिनको तू चाह से लाया था निरस होने पर वे त्यागने योग्य हो गई हैं । हे भोले जीव ! यही दशा तो तेरी सुन्दर श्यामा या गौरी की, प्रिया या अर्द्धांगिनि की होने वाली है यह तू क्यों नहीं
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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