SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्त्री ममत्व ७५ सुरापान कराते हैं व वारांगना के आवास में ले जाकर रूप सुन्दरियों के मोहजाल में फंसाकर उनके रंग में रंग देते हैं । वह, मोहमदिरा का पान करता हुवा उनके जाल में ' ऐसा फंस जाता है जैसा कि कोशावेश्या के स्वर्णमय मोहावर्त में शकटाल पुत्र जैन ब्राह्मण स्थलिभद्र फंस गया था । फंसने के पश्चात उसका मन उसी रूप लावण्यमयी के चारों तरफ फिरता है, उसके अवगुण भी उसे गुण नजर आते हैं, उसकी चितवन उसके चित्तवन को चुरा लेती है वह संपूर्णतया उसके प्राधीन हो जाता है और भान भूल जाता है । वह सुभ्रू उसे संसार वन में सुभ्रमण कराती है । और नारी का वह दास तब स्वयं के तन मन की भी सुध परमात्मा का स्मरण हो ही कैसे भवरूपी समुद्र में डूबते हुए प्राणी ले जाने में सहायभूत नारी, उसके गले में बंधी हुई जीती जागती शिला है । पत्थर की शिला तो टूट भी सकती है लेकिन इस शिला के मोहरूप अणु ऐसे स्निग्ध व घने हैं जो टूटने में शक्य है । विवाह करने के पश्चात मनुष्य गृहस्थ अर्थात जकड़ा हुवा कहलाता है उसका वह बंधन उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है । शारीरिक व मानसिक चिन्ता की श्रृंखलाएं आशा की जल तरंगे, बढ़नी शुरू होती हैं । गृहस्थोपयोगी सामग्री, श्रृंगार के साधन, मनोरंजन के आधुनिक वाद्य उसके उस घेरे को बढ़ाते जाते हैं । गृहस्थी के फलस्वरूप संतान होने के पश्चात वह आर्द्रक कुमार की तरह कच्चे सूत के तारों से बांध भूल जाता सकता है । के लिए उसे है तो फिर उसे इस प्रकार से गहरे खड्डे में तो
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy