SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .. अध्यात्म-कल्पद्रुम संबंधियों का स्नेह स्वार्थ पूर्ण है अतः अपना स्वार्थ साधो स्निह्यन्ति तावद्धि निजा निजेषु, पश्यन्ति यावन्निजमर्थमेभ्यः । इमां भवेत्रापि समीक्ष्य रीति, स्वार्थे न कः प्रेत्यहिते यतेत ।।२६।। अर्थ सगे संबंधी, जहां तक अपने संबंधियों में कुछ भी अपना स्वार्थ देखते हैं वहीं तक उन पर स्नेह रखते हैं। इस भव की इस रीति को देखकर परभव के हितकारी 'स्वार्थ' के लिए ऐसा कौन होगा जो यत्न नहीं करेगा ॥ २६ ॥ उपजाति विवेचन—पंख आने पर पक्षी माता को छोड़ देते हैं, चारा दाना पचाने की शक्ति आने पर पशु अपनी माता का संबंध छोड़ देते हैं, जब तक दूध पीते थे तब ही तक उससे स्नेह था, पश्चात युवावस्था में भान भूलकर उसीसे मैथुन करते हैं। मनुष्य भी जब तक बालक होता है, अशक्त होता है तब तक माता पिता के आधार पर रहता है, उनके द्रव्य से पलता है व विद्याभ्यास करता है पश्चात युवावस्था में विवाह कर उनसे अलग हो जाता है, उनकी अवहेलना करता है, उसको माता पिता की अपेक्षा स्त्री व संतान अधिक प्रिय लगते हैं। सब ही स्नेहीवर्ग की यही दशा है । जब तक जिसका जिससे स्नेह है या स्वार्थ है तब ही तक उसके रहते हैं। धन और शक्ति के क्षीण होने पर स्त्री पुत्र आदि भी मनुष्य को छोड़ देते हैं । वृद्ध पुरुषों को वही दशा होती है, जो कि हाडपिंजर-दुग्धहीन गाय भैंस की या जर्जरित अस्थिपिंजर घोड़े की होती है। दुनियो का बड़ा भाग स्वार्थ परायण
SR No.022235
Book TitleAdhyatma Kalpdrumabhidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFatahchand Mahatma
PublisherFatahchand Shreelalji Mahatma
Publication Year1958
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy