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________________ (२३४) + सिद्धान्तसार गवा अणेसणिजेणवा असणं ४ जाव किंकबइ ? गोयमा! एगंतसोसे पावकम्मे कवर, नबिसेकावि (णधरा कधश्॥ अर्थः-सा श्रमणोपासक श्रावकने जंग हे जगवंत! त० तथारुप तपयोग उपशमे करी सहित स० श्रमण प्रत्ये अथवा मा0 माहण प्रत्ये फा प्रासुक (निर्जीव ) एम् एषणिक (४२ पुषण रहित ) एवा श्र० अनादिक पा० पाणी जाक्षादिकनुं खा मेवा सुखमी प्रमुख सा० सादिम (लविंगादिक प्रमुख), ए चार आहार प० प्रतिलालता थकाने किं० शुं फल थाय ? ए प्रश्न. उत्तर. गो हे गौतम ! ए० ते श्रमणोपासकने एकान्त नि० निर्जरा कः कमनो कय हेतु फस थाय; नए नथी से तेने पाए पाप कर्म. एटले साधुने प्रासुक दान दे तेने कर्मनी निर्जरा थीय, ने पापकर्म न थाय. अथ श्रपासुक दान विषे बीजुं सूत्र कहे:स० श्रमणोपासक नं हे जगवान ! त० तथारुप स० श्रमण प्रत्ये मा० महिण प्रत्ये अण्यप्रासूक (सजीव) अणे अनेषालय (उषण सहित), एवा अयसन पा० पान, खादिम, सादिम जा० यावत् प० प्रतिलानताथकाने किंशु फल थाय ? ए प्रश्न उत्तर. गोण हे गौतम! ब० पापकर्मनी अपेक्षाये घणी णि निर्जरा थाय, ने थप्प० निर्जरानी थपेक्षाये अल्पतर पा पापकर्म थाय. इहां ए नावना गुणवंत पात्रने कांजे . प्रासुक दान दीधाथी चारित्र कायनो उपष्टंन थाय अने जीवधात पश थाय. ते व्यवहारथी चारित्र बाधा थाय. त्यार पड़ी चारित्र कायोपष्टजयी निर्जरा थाय अने जीवधातादिकथी पापकर्म थाय. त्या स्वहेतु सामर्थथी पापनी अपेक्षाये बहुत्तर निर्जरा थाय, अने निर्जनिी अपेकाये अल्पतर पाप थाय. साधुने अप्रासुक दाने थप पाप, ने मिरा घणी, एम सूत्रे कडं. इहां केटलाक एम कहे डे के, असंथरणादि कारणेज चपासुक दाने घणी निर्जरा थाय, परंतु कारण विना नाई. पर: उक्तं." संथरणं म असुझं दोणवि गएहंत दिसयाणहियं श्रावर सिं तेयं तव हियं असंथरणे." वली केश्क एम कहे के, प्रकारचे प्रया
SR No.022232
Book TitleSiddhant Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGambhirmal Hemraj Mehta
PublisherGambhirmal Hemraj Mehta
Publication Year1908
Total Pages534
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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