SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतपदी भाषांतर. ( ३ ) उत्तरः- अत्यंत प्राचीन अतिशयवंत प्रतिमाओनी बात क रवानी जरूर नथी. कारण के तेमां तो श्रीवत्स पण नथी. वळी श्वेतांबर दर्शन प्रमाणे दीक्षा लेती वेळा अवश्य सर्वे तीर्थंकरो सोपधिक एटले वस्त्रसहित होय छे माटे वस्त्रांचल वाजबीज छे. विचार ३ जो. ( यति प्रतिष्ठा. ) मश्नः - हमणाना घणा यतिओ जिनप्रतिमानी प्रतिष्टा करे छे, छतां तमे केम नथी करता ? - उत्तर: – सूत्र, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, अने टिपन्नक रूप आगमग्रंथोमां कोई ग्रंथकारे कोई ठेकाणे साधुने आश्री प्रतिष्ठा कही नथी. उलटुं श्रीभद्रबाहुस्वामि वगेराए कल्पादि सिद्धांत ग्रंथोमां श्रावकोनेज आसरीने प्रतिष्ठानी विधि कही छे. कल्पभाष्यना पहेला उद्देशामां लख्युं छे के साधुए ज्यां प्रतिष्टा थती होय त्यां चैत्यपूजा होतां, अथवा राजाए निमंत्रण करतां, अथवा संज्ञि एटले श्रावक तेनी भाववृद्धि करवा माटे, अथवा पोते वादी होतां, अथवा क्षपक एटले तपस्वी होतां, अथवा धर्मकार्थक होतां, अथवा शंकित एटले कोई सूत्रार्थमां शंकावंत थएल होतां, अथवा पात्र एटले शिष्यादिक मळवाना होतां, अथवा प्रभावनाना निमित्ते, अथवा प्रवृत्ति एटले समा-चार मळवाना होतां, अथवा उड्डाह टाळवाना कारणे जतुं . इहां संज्ञि तथा वादिरूप वे द्वारनी व्याख्या करतां चूर्णि -
SR No.022231
Book TitleShatpadi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasinhsuri
PublisherRavji Devraj Shravak
Publication Year1895
Total Pages248
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy