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________________ ( ३४ ) बिइओ परिच्छेओ-किसीकरणं ( कषायों का कृशीकरण ) • शिष्य कषाय स्वरूप जानकर विचार-मग्न हो जाता है । वह आकुलभाव से निवेदन करता है 'दुक्खिओऽहं कसायाहि, मं चइस्संति ते कहं । देव ! ते बयर्णोह खु, दिट्ठा सत्तुष्व ते मए ॥१॥ - シ 'हे देव ! आपके वचनों से ही वे ( कषाय ) मुझे शत्रु के तुल्य दिखाई दिये हैं। मैं कषायों से दुःखी हूँ । वे मुझको कैसे छोड़ेंगे ? 'उड़ गए वि जीवेऽहो ! पाडेम्ति ते अहे अहे । बराए सत्तसीले वि, अम्हाण होज्ज का गई ? ' ॥२॥ 'अहो ! वे ऊँचे गये हुए उच्च गुणस्थान पर पहुँचे हुए जीवों को भी नीचे अति नीचे गिरा देते हैं । सत्त्वशाली जीव भी ( उनके समक्ष ) वराक् (=बेचारे हो जाते ) हैं । तो हमारी क्या गति होगी ?' टिप्पण -- १. एक मात्र वीतराग जिनदेवों के वचन ही कषायों को एकान्त रूप से हेय बतलाते हैं और उनके विविध दुष्फलों का वर्णन करते हैं । सद्गुरु के वचन भी उनके वचनों के अनुसार होते हैं । अतः शिष्य गुरुदेव से कह रहा है कि मैंने आपके श्रीवचनों से ही इन कषायों को पहचाना है । २. जो स्वयं कषायों से मुक्त होते हैं, वे ही उनसे मुक्त होने का मार्ग बता सकते हैं और जिन्होंने जिनवचनों से अपने हृदय को भावित करके, मोक्षमार्ग पर प्रयाण किया है, वे ही मार्गगत शत्रुओं की पहचान और उनके पराभव के उपाय बता सकते हैं । 'देव' शब्द के द्वारा संबोधन से जिनदेव
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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