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________________ अपनी बात ___ कर्मवाद एक सत्य है, तथ्य है, अध्यात्म-जगत् का। निरीश्वरवादी आस्तिक दर्शनों का तो प्रमुख आधार ही कर्मवाद है। किन्तु ईश्वरवादी दर्शनों ने भी किसी न किसी रूप में-परमेश्वर को पक्षपात से रहित दरसाने के लिये या नैतिकता के आधार के लिये-कर्मवाद को स्थान दिया है। निरीश्वरवादी जैनधर्म ने जगत् के वैविध्य को कर्मवाद के माध्यम से बड़े सुन्दर ढंग से समझाया है । एक प्रश्न खड़ा होता है कि कर्म में विविधता क्यों है ? इस प्रश्न का समाधान देते हुए कहा गया है कि जीव के कर्मबन्ध में हेतुओं की विविधता रहती है और हेतु की विविधता में भावों की विविधतातरतमता कार्यरत रहती है। जीवों में परस्पर तो भाव-वैभिन्न्य रहता ही है। किन्तु एक ही जीव में काल-भेद से भाव-भेद हो जाता है। इस भाव-वैभिन्न्य में कारण हैकषाय का उदय । आत्मा की कषाय से युक्त भाव-परिणति पूर्व-बद्ध कषायमोहनीय कर्म के उदय से होती है। वह उदय आत्मा में क्रोध आदि भाव प्रकट करता है। अतः कषाय अध्यात्मदोष कहा गया है और आत्मगत उस कषाय से शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध होता है । अतः उसे अध्यात्म-हेतु भी कहा गया है । इस कषाय-परिणति से ही भव-परम्परा चलती है। . कषाय के चारों भेद अति प्रसिद्ध हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । मोक्ख-पुरिसत्थो का तीसरा भाग इन्हीं के विषय में आलेखित है । ग्यारहवां बोल है-कषाय को पतली करके निर्मूल करे तो...। इसी के विस्तार रूप में यह कसायजओ नामक बारहवाँ अध्ययन है, जिसमें चार परिच्छेअ हैं; यथा-कषाय-स्वरूप, कषाय-कृशीकरण, कषाय-वशीकरण और कषायक्षयकरण । बोल के आधार से ही इन प्रकरणों का विभाजन हुआ है। प्रथम परिच्छेअ में मंगलाचरण के पश्चात् बोल के औचित्य का चिन्तन किया गया है । इसके पश्चात् कषाय की परिभाषा, उसके भेद, उसकी बन्ध
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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