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________________ । ३१९) स्वरूप को जान लेने पर ही प्रामाणिक लगती है। ४. आत्म-ऐश्वर्यवाला जीव ही प्रभु और वास्तविक देव है । ५. नाथ, प्रभु और देव ही अन्य जनों के कषायक्षय में सहायक बन सकते हैं। . एसि न तं-तव सरणं, एव बलं इह भवम्मि इक्कं चिय । अप्पेमि णियं-पाए, गहेमि तो होइ सयल सुहं ॥२॥ (हे प्रभो!) तू नहीं आता है। तेरा शरण ही इस भव में (मेरे लिये) एक मात्र बल है। (आपके चरणों में) अपने को समर्पण करूँ-पैरों को ग्रहण करूँ--तो (मुझे) सकल सुख है। टिप्पण-१.वीतराग वीतराग हैं । वे किसी के लिये कुछ नहीं करते हैं और न किसी की प्रार्थना पर द्रवित होते हैं । फिर भी उनके शरण से बढ़कर किसी सरागी का शरण नहीं है। २. अहंकार-विसर्जन और आत्मसमर्पण से ही शरण-ग्रहण होता है। ३. वीतराग-शरण ही परम बल है। ४. शरणागति से परम सुख की प्राप्ति होती है। - ण कसाय-वसे होहिमि, गय-सव्व कसाय ! नाह ! समसायर! तुम्हाण पसाएणं, णिम्मोही 7 णियबलो होमि ॥३॥ है समस्त कषाय से अतीत ! हे नाथ! हे समतासागर'! मैं कषाय के वशीभूत नहीं होऊँ । तुम्हारे प्रसाद से मैं आत्मबली निर्मोही हो जाऊँ । टिप्पण-१. अन्य का शरण जीव को दास बनाता है। किन्तु वीतराग का शरण जीव को स्वाधीन बनाता है। २. रागी का शरण रागी बनाता है। वीतराग का शरण कषायों के वशीभत नहीं होने देता है। ३. वीतराग के स्मरण से आत्मविश्वास उत्पन्न होता है, जिससे आत्मबल का विकास होता है। ४. जीव आत्मबल से कषायों को क्षय करके निर्मोही बनता है । ५.
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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