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________________ ( ३१७ ) के लिये अपार भवसागर रहा और वहीं जीव भव-भ्रमण करता रहा । मैं भी उन्हीं में एक था । ७. जीव वहाँ अत्यन्त अव्यक्त चेतनावाला था। साधारण जन तो उन जीवों का अस्तित्व ही नहीं जान सकता । अतः उनकी अव्यक्त चेतना की कल्पना करना भी शक्य नहीं है। अनन्त गाढ़ निद्रा में जीव जन्म-मरण करता रहता है। ऐसी ही गाढ़ निद्रा में उन प्रभओं ने मझे भी अत्यन्त सुप्त अवस्था में उस भवसागर में गोते लगाते हुए देखा । ८. वह आपका मुझे देखना आपके लिये तो कोई प्रयोजन भूत था नहीं, किन्तु मेरे लिये भी कुछ सार्थक नहीं था । आज मेरे लिये वह सार्थक हो रहा है कि जब मैं स्वयं ही जड़वत् बेभान था और किसी की दृष्टि में भी मेरा अस्तित्व नहीं था । किन्तु मात्र आपकी दृष्टि में मैं जीव ही था--दयापात्र था । यह बात आज मेरे अन्तरतम में पुलक भर देती है। जम्म-मरण-वोलीणो, जडो व हं दुक्खिओ महन्नाणी। तं वेयणं न जाणे, सक्खं तुम्हेहि दिळं पहु ! ॥७९॥ हे प्रभु ! जन्ममरण (के सागर) में डुबा हुआ जड़ सदृश मैं महा । अज्ञानी दुःखी था । उस वेदना को मैं नहीं जानता हूँ किन्तु आपने साक्षात् रूप से (उस वेदना) को देखा है अर्थात् जैसे आप मेरे अस्तित्व के साक्षी हैं, वैसे ही मेरी उस अनन्त वेदना और उसके कारण के साक्षी या साक्षात् दृष्टा आप ही हैं। वत्त-कसाएणं पुण, चऊगईसुं वहिंसु परमदुहं । जाणतो वि चइत्तुं, विवेगहीणो ण सक्को मि ॥५०॥ और फिर (व्यवहार राशि में प्रविष्ट होने पर) व्यक्त कषाय से चारों गतियों में परम दुःख का वहन किया। (कषाय से जनित दुःखों) को जानता हुआ भी (उसे) त्यागने में मैं विवेकहीन समर्थ नहीं हूँ।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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