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________________ ( २८३ ) टिप्पण-१. निर्वेद परिणाम विषयों की दुःखरूपता के चिन्तन से तीव्र-तीव्रतर होते जाते हैं । चिंतनधारा जितनी गहरी होती है, निर्वेद उतना ही तीव्र होता है। २. विषयों की विरक्ति की तीव्रता के स्तर के अनुसार निर्वेद तीव्र होता है और फिर तीव्रतर निर्वेद से अप्रत्याख्यान कषायचतुष्क का क्षय होता है। उससे आगे तीव्रतम निर्वेद से प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का क्षय होता है । वा शब्द से यह विकल्प सूचित किया है कि किसी के परिणाम तीव्र और किसी के तीव्रतर होकर रुक जाते हैं और किसी के तीव्रतम तक पहुँच जाते हैं। उसीके अनुसार कषायचतुष्कों का क्षय होता है। ३. खवइ शब्द के बाद के य शब्द से कषायचतुष्कों का उपशम, और क्षयोपशम भी गृहीत होता है। क्योंकि चरित्र औपशमिक और क्षायोपशमिक भी होता है। निर्वेद में भोगों के प्रति भाव सव्वं भोगं तु जाणित्ता, असारं दुक्ख-कारणं । असाय-अणुबंधं च, आरंभयं हु भावइ ॥२९॥ ज्ञानी (इसके बाद) सभी भोग को असार, दुःख के हेतु, असात वेदनीय की बन्ध की परम्परावाले और (दुःख फलवाले) ज्ञपरिज्ञा से जानकर (और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्यागने की भावनावाले होते हैं) क्योंकि (भोग) आरंभ से ही उत्पन्न होता है, यह भावना करता है। टिप्पण-१. भोगों में सारतत्त्व अंशमात्र नहीं है। २. भोगों का उत्पादन, संरक्षण और वियोग दुःखमय होता है। अतः भोग दुःख के कारण हैं। ३. भोग में रोगों का भय रहता है । भोग के उत्पादन और भोग में अन्य का वध, बन्धन, पीड़न आदि होता है। अतः उससे असातवेदनीय का बन्ध होता है और उस असाता को वेदते समय द्वेषादि के कारण पुनः असाता का बन्ध होता है। इसप्रकार भोग से असाता की बन्ध परम्परा बनती है। ४. तु शब्द का यहाँ द्वितीय और तृतीय कषायचतुष्क के क्षय के बाद का अर्थ
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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