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________________ ( २७५ ) और संसार की उपादानता भग्न होने लगती है। अतः मोक्ष के राग-शुद्ध आत्मत्व के राग से अनन्तानुबन्धी चतुष्क क्षय हो-इसमें कोई आश्चर्य नहीं। ४. कषायराग उदय भाव है और मोक्ष का राग क्षायोपशमिक भाव है। उस भाव से कर्म को क्षय करने के योग्य भावों का आविर्भाव होता है। ५. संवेग अर्थात् सम्यक् प्रकार का वेग-गति । भावों का वेग संसार से हटकर मोक्ष और मोक्ष के कारणों के प्रति हो जाना संवेग है । संवेग की भूमिका कषाय राग का अभाव कसायं दुहरूवं जं, बंधरूवं पतीयए । रागो तस्स तया एव, सयमेव विलीयए ॥१७॥ कषाय जो दुःखरूप और बन्धरूप प्रतीत होता है तो उसी समय उस (कषाय) का राग स्वयमेव विलीन हो जाता है। टिप्पण--१. जो दुःखरूप और बन्धनरूप लगता है, उससे राग का अभाव हो जाता है। २. कषाय दुःखरूप हैं-बन्धन हैं-यह दृढ़ प्रतीति होना चाहिये । जो दुःखरूप और बन्धन हो, उसमें गौरव की अनुभूति होती ही नहीं है। ३. जब कषाय में तीव्र रूप से दुःख और बन्धन प्रतीत होता है, तब कषायों का राग अपने आप ही दूर हो जाता है। संवेग का आविर्भाव और उसके कार्य विगारा हिच्च रागो उ, अप्प-भावे जया कओ । सोहिरुई य विस्सासो, धम्मस्स तो भवा भयो ॥१८॥ देवाईसु दढा पोई, संवेगो तेहि तिक्खओ । अपुव्वकरणो जेण, गंठिभेओ य जायइ ॥१९॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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