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________________ ( २७० ) को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है। ३. क्रोध आदि की बाह्य प्रवृत्ति को रोककर आभ्यन्तर कषाय का क्षमा आदि भाव से निरोध किया जा सकता है। ४. कषाय की बाह्य प्रवृत्ति को रोककर आभ्यन्तर भाव का निवारण करना कषाय-विवेक का साधनात्मक रूप है । इस विधि से कषाय के उदय में उसका विवेक संभव है। ५. विवेक से माध्यस्थ्यभाव के फलित होने का क्षण आता है और विवेक में राग-द्वेष का अंश भी नहीं होता है । अतः इस दृष्टि से कषाय-विवेक को समभाव कहा जा सकता है । उसे समभाव कहना युक्त भी है। ६. 'किंचित् युक्त है' अर्थात् आंशिक रूप से युक्त है। क्योंकि विवेक प्रशम भाव का एक रूप है । ७. कषायों में अरुचि होती है, तभी उनमें विवेक किया जा सकता है और माध्यस्थ्यभाव में रुचि-अरुचि दोनों नहीं होती है। जब माध्यस्थ्यभाव या समभाव का औदासीन्य शब्द भी पर्यायवाची मान लिया जाता है, तब कषायों के उदय में प्रवृत्ति न करते हुए उपेक्षा से उन भावों का दृष्टा बने रहना-समभाव में गर्भित किया जा सकता है। क्योंकि कषाय विवेक की एक यह भी पद्धति है। ८. कषायोदय में औदासीन्य भाव लम्बे समय तक टिकना संभव नहीं है। ध्यान-मौन में अप्रमत्त रहने पर तत्कालीन उदय में ही-ऐसा संभव हो सकता है। कषाय-राग की भयंकरता विसं कसाय - रागो उ, महादुट्ठो विहाडगोभवदारस्स जेणं खु, अज्ज-पज्जंतए दुहं ॥१२॥ कषायराग विषतुल्य है। (वह) महादुष्ट (है और) भव के द्वार को खोलनेवाला है। निश्चय ही आज पर्यन्त उससे (ही) दुःख है। टिप्पण--१. कषायराग के कारण ही कषायों का अस्तित्व लम्बे समय तक बना रहा है-बना रहता है। २. अनन्तानुबन्धी कषाय का गाढ़ापन और मिथ्यात्व के कारण कषायों का राग होता है। अतः वह कषाय की
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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