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________________ ( १४७ ) चरित्र से आपने क्या पाया ? वर्धनापुर में एक किशोर रहता था। नाम था हुकुमचन्द । उसे सन्त-समागम से वैराग्य-भाव जागा । उसने पिता से दीक्षा की आज्ञा माँगी। पिता ने पहले तो उसे समझाया-बुझाया, डाटा और अन्त में कहा--"तू मेरे गुरु के पास दीक्षा ले तो आज्ञा दे सकता हूँ।" हुकुम को तो दीक्षित होना था। उसे किसी से कोई मोह नहीं था। उसने पिता की बात मान ली। वह पिता के गरु के पास चला गया। वहाँ उसका बहुत सम्मान किया गया। उसने वहाँ कुछ अध्ययन किया और एक दिन बड़ी धाम-धम से उसकी दीक्षा सम्पन्न हो गयी। गुरु का संघ विशाल था। सम्पन्न लोग भक्त थे। प्रायः उनके भक्तों की यह आदत थी कि अपने गुरु के गुणों की महिमा खुब करना और उनके शिष्यों की विद्वता, शीलसम्पन्नता, क्रिया सम्पन्नता आदि की बढ़ा-चढ़ाकर बातें करना। साथ ही वे भक्तिराग में वैयावृत्य के मिस आधाकर्मी, औद्देशिक आदि दोषों से दूषित आहार आदि बहरा देते थे। दूर-दूर प्रदेश तक गुरु की वैयावृत्य के लिये जाते थे। कई बार सन्त उन दोषों को जान भी लेते थे। किन्तु भक्तराग में वे इन बातों को प्रायः नजर-अन्दाज कर देते थे। यों अन्यत्र वे कड़क आचार का पालन भी करते थे। __हुकुममुनि आनन्द से संयमी-जीवन जी रहे थे । वे ज्ञानार्जन में भी प्राणप्रण से जुट गये। सत्क्रिया में भी निष्ठा थी। अपने संघ के अन्य सन्तों के समान ही वे दढ़ आचार का पालन कर रहे थे। अपने गुरु की महिमा के गीत गाते थे। दूसरे संघ के मुनियों के शिथिलाचार की डटकर निंदा करते थे। वे स्व-सिद्धान्त और पर-सिद्धान्त के ज्ञाता बनें। दूसरे संघ के मुनि तो उन्हें ढोंगी और पाखण्डी रूप में ज्ञात करवा दिये गये थे।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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