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________________ ( १२८ ) गुरुदेव ने कहा-“मधुरमुनि ! तुम से अंशतः व्रत-विराधना हुई है और शशिमुनि ! तुमने इनपर पूर्णतः व्रत-भंग का आरोप लगाया है तथा लोगों में इन्हें लाँछित करने का कार्य किया है। अत; तुम दोनों को प्रायश्चित आता है।" ____ शशिमुनि ने आक्रोश से कहा-“मैं किस बात का प्रायश्चित लूँ ! मैं दोषी हूँ ही नहीं।" मधुरमुनि बोले-“मैं भी प्रायश्चित क्यों लूं? मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ। इन्होंने मुझे वृथा ही बदनाम किया है।" ___गुरुजी ने बहुत समझाया। पर वे नहीं माने । मधरमनि क्रोध में अकेले ही विहार करके आचार्य के पास गये। वे वहाँ पर भी तीव्र आवेश में बोलते रहे-"निर्दोष हूँ मैं। न्याय कीजिये। नहीं तो लीजिये यह आपकी मुखवस्त्रिका और रजोहरण ।" आचार्य ने शान्ति से कहा-"आप जरा-सी बात को बहुत तान रहे हो, आयुष्मन् ! आप तीव्र मान कषाय से पीड़ित हो रहे हो। आप स्वलिंग के परित्याग की बात कर रहे हो। यह साधारण बात नहीं है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि आप में चरित्र के परिणाम नहीं रहे ।" यह सुनकर मधुरमुनि को अनुभव हुआ कि मेरा घोर अपमान किया गया है । वे रोष के साथ वहाँ से चल दिये-"आप तो सर्वज्ञ जैसी बातें कर रहे हैं। संयम तो मुझे पालना है न ! धरा रहे आपका संघ और समाज । मैं अकेला ही रह लूंगा।" ___मधुरमुनि न संघ में रहे और न गुरु के पास ही गये। उधर शशिमुनि अभिमान के कारण गुरु-चरणों का परित्याग करके चले गये। मधरमनि आवेश में अकेले हो तो गये। परन्तु अकेले विचरण करना उन्हें कठिन पड़ने लगा । वे अपने एक पूर्व के अनुरागी ग्राम में आकर टिक गये। वहाँ उनके स्वजन भी थे। अतः पहले तो उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। गुरु के अनुरागी श्रावक उन्हें मनाने आये। तब वे बोले-“अब जो होना था सो हो गया। अब मैं पुनः नहीं लौट सकंगा।"
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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