SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९८ ) जा जा तस्स सरूवं हु, चिते ता ता स-अंतरं । गूढयरं पदंसेइ, सो किचि वि न गूहइ ॥ ४५ ॥ जितना - जितना (कोई ) उस ( कषाय) के से चिन्तन करे, उतना उतना वह अपने भीतर के करता है, कुछ भी छिपाता नहीं है । स्वरूप का निश्चय रूप गूढतर भाव को प्रदर्शित टिप्पण - १. किसी विषय के स्वरूप का चिन्तन करने से उसके विषय में गहनतम जानकारी भी प्राप्त हो सकती है । वैसे ही कषाय के स्वरूप का चिन्तन करने पर उसका अति गुह्य रूप भी व्यक्त हो सकता है। एक-एक प्रकार के तरतमता से कई प्रकार हो जाते हैं और एक-एक रूप के असंख्य परिणाम- स्थान होते हैं । २. वस्तुतः कषाय का भाव जड़-कर्म-जनित है। अत: उसमें कुछ छिपाने की कुछ भी शक्ति नहीं है । किन्तु हमारा भाव उससे आविष्ट हो जाता है । जिससे अपने आपको अपने आप में देखना कठिन हो जाता है और निरीक्षण करते समय वे भाव तिरोहित हो जाते हैं । अतः स्वरूप - चिन्तना से निरीक्षण शक्ति जितनी तीक्ष्ण होती जाती है, उतनी उन भावों को समझने की शक्ति - ग्रहण शक्ति बढ़ती जाती है और रहस्य खुलने लगता है । असुहं असुहं णच्चा, तम्मि रमइ को गरो । को कसा वसे - णच्चा, मालिण्णं परयं सए ॥ ४६ ॥ अशुभ को अशुभ रूप में जानकर उसमें कौन मनुष्य रमण करता है । (वैसे ही ) ( कषायों को ) - अपने में पर से उत्पन्न मालिन्य के रूप में जानकर कषाय में कौन वसेगा ? टिप्पण - १. अशुभ- अमङ्गल को उसके सही स्वरूप में जान लेना ही उससे दूर टलने का हेतु बनता है । २. निज शरीर से उत्पन्न अशुभ पदार्थ
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy