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________________ ( ९४ ) लोभ के स्तर की पहचान किमि-कद्दम-खंजण-हालिद्दा-रागेहिरत्त-वत्थेव । लोहो कमसो चिट्ठइ, गई सद्द-सोल-भाव हरो ॥३९॥ कृमिराग, कईमराग, खंजनराग और हलिद्वाराग से रंगे हुए वस्त्रों के सदृश (स्तरवाला) क्रमशः लोभ स्थित है। (उससे क्रमशः) गति (होती) है और वह (क्रमश:) श्रद्धा, शील (=देश विरति और सर्व विरति) और (शुद्ध) भाव (= यथाख्यात चारित्र) का अपहारक है। टिप्पण-१. लाल कृमियों से तैयार किया गया रंग स्थायी रहता है। वह रंग अति अपवित्र होता है। वैसे ही अनन्तानुबन्धी लोभ अति स्थायी, लाभ में अत्यधिक बढ़नेवाला और अपवित्र होता है। अतः उसके उदयकाल में नरकायु का बंध होता है। २. कर्दम = कीचड़ से सना हुआ वस्त्र कम स्थायी रंगवाला, कम अपवित्र और विशेष प्रयत्न से शुद्ध होनेवाला होता है। वैसे अप्रत्याख्यानी लोभ थोड़े लम्बे समय तक टिक सकता है। उसमें भावों की अशुद्धि पूर्व की अपेक्षा कम रहती है और विशेष प्रयत्न से उसमें मंदता आ जाती है। उसके उदयकाल में तिर्यञ्चायु का बंध होता है। ३. खंजन=कजली। कजली के रंग में सना हुआ वस्त्र मृत्तिका तैलादि के प्रयोग से जल्दी शुद्ध हो जानेवाला और अपवित्र नहीं होता है। वैसा प्रत्याख्यानावरण लोभ भी है। यह अत्यन्त मर्यादित हो जाता है और इसमें चरित्र शुद्धि का कम प्रारंभ हो जाता है । इसके उदय में मनुष्यायु का बन्ध होता है। ४. हलिद्रा का रंग शुभ और त्वरित ही उड़ जानेवाला होता है । वैसे ही संज्वलन के लोभ में शुभभाव की तीव्रता रहती है और यह लोभ अल्पलाभ में ही शमित हो जाता है। उसके उदय में देवायु का बन्ध होता है। ५. अनन्तानुबन्धीचतुष्क सम्यक् श्रद्धा का, अप्रत्याख्यानी चतुष्क देशविरति =अंशत: त्याग का, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क सर्वविरति=महावतों का और संज्वलनचतुष्क यथाख्यात चरित्र का नाशक है।
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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