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________________ I शुकन, मुहूर्त्तादि से दानादि ग्रहण करते हैं । इस प्रकार के विविध आकर्षण से लोगों को अपनी ओर इस प्रकार आकर्षित करते है जिससे धर्म के अर्थी होने पर भी वे लोग दूसरे सुविहित गुरु का आश्रय नहीं करते, विपरीत सुगुरु के आश्रित लोगों का वे हास्य करते हैं। उनकी मश्करी करते है । ऐसे कुगुरु भी अनेक होने से उनके दृष्टांत नहीं दिये । चारित्रेण विहीनः श्रुतवानपि नोपजीव्यते सद्भिः । शीतलजलपरिपूर्णः कुलजैश्चाण्डालकूप इव ॥ उपदेश रत्नाकर १/२ चारित्र से रहित ज्ञानी सज्जनों की ओर से मान-सन्मान नहीं पाता जैसे शीतल जल से पूर्ण चंडाल के कूप को कुलवान व्यक्ति छोड़ देते है । यानि कुलवान उसका उपयोग नहीं करते । शीतेऽपि यत्नलभ्यो, न सेव्यतेऽग्निर्यथा श्मसानस्थः । शीलविपन्नस्य वचः पथ्यमपि न गृह्यते तद्वत् ॥ उपदेश रत्नाकर २/९० शीतकाल की पीड़ा में यत्न से प्राप्त अग्रि अगर श्मशान की है तो उस अग्नि का सेवन सज्जन नहीं करता । वैसे ही सदाचार से रहित व्यक्ति के वचन पथ्यकारी होते हुए भी श्रवणीय नहीं है । दुष्भासिएण इक्केण, मरीई दुक्खसागरं पत्तो । I भमिओ कोडाकोडिं, सागरसरिनामधिज्जाणं || दुर्भाषित एकवचन से मरीची एक कोडाकोडी सागरोपम काल : तक दुःखरूपी संसार सागर में गिरा । 152 - - - उपदेश रत्नाकर
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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