SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी नरक के दुःखों को अच्छा बतलाते हैं। इसका कारण यह है कि वे धर्म को आत्मा में रखकर गर्भवास तथा नरकावास का दुःख भोगना अच्छा समझते हैं, किन्तु धर्मभ्रष्ट होकर ग्रैवेयक के अहमेन्द्र बनना भी ठीक नहीं समझते । यद्यपि धर्मीपन की अवस्था में जीव, नरक के योग्य सामग्री का संचय नहीं करता । मनुष्य और संज्ञी तिथंच तो एकमात्र वैमानिक देव का ही आयुष्य बांधता है और सम्यग्दृष्टि नारक और देव, मनुष्यायु का ही बंध करते हैं, तथापि सम्यग्दृष्टि होने के पूर्व नरकोत्पत्ति के योग्य गति, शरीर, आयु आदि सामग्री जुटाली हो, तो सम्यग्दृष्टि अवस्था में-सम्यग्दर्शन लिये हुए नरक में जाना पड़ता है । उस समय वह श्रद्धा की अपेक्षा धर्मीजिन प्रवचन का प्रेमी ही रहता है । उसका गुणस्थान चौथा रहता है। किन्तु कुसंघ-जिनाज्ञालोपक संघ का समर्थक बनकर तो वह धर्म-घातक बन जाता है । इस प्रकार धर्म का अपलाप करते हुए कभी जीव ने किसी कारण से या धर्मीपन की अवस्था से पहले देवायु का बंध करके देवगति के सुख भी प्राप्त कर ले, तो क्या हुआ ? धर्मरूपी अनमोल रत्न खोकर देवगति पा ली, तो आत्मिक पतन तो हुआ ही । उसका परिणाम इस देवभव के बाद जब अनुभव में आयगा, तब मालूम होगा । जिस प्रकार सती शीलवती महिला रत्न, अभाव एवं दरिद्रता पूर्ण जीवन व्यतीत करना पसंद कर लेगी, किन्तु सतीत्व एवं सदाचार का त्यागकर धन प्राप्त करना नहीं चाहेगी । उसी प्रकार आचार्यश्री भी कहते हैं कि श्री जिनधर्म रूपी रत्न को संभाल कर, भले ही मैं कुशीलियों और उनके पक्षकारों द्वारा 133
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy