SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पा ( ७४ ) कराववो. बालजीवो मध्यमपणुं पामी अनुक्रमे बुधपणुं माप्त करे, आत्मानी परमविशुद्धि करता शीखे तयाप्रकारे उपदेशके प्रयत्न करवो जोइए. तोज उपदेशकनो उपदेश प्रभुत्राज्ञाकारी बनी स्वपरने यथारूपे उपकारी थाय, एज प्राचार्यश्रीनो अहीं गर्मित परमार्थ छे. अतएव अहीं उपदेशानुकूल वर्तन राखवार्नु पण उपदेशक माटे प्राचार्यश्रीए भारपूर्वक जणाव्युं छे. मा प्रकारे उपदेशकने भलामण करी हवे बालवर्ग लायक देशनानुं स्वरूप ग्रंथकर्ता पांच आर्या श्लोकथी विस्तृतपणे अहीं दर्शाये छे सम्यग्लोचविधानं ह्यनुपानकत्वमथ धरा शय्या । प्रहरद्वयं रजन्याः , स्वापः शीतोष्णसहनं च ॥ २-३ ॥ मूलार्थ-सम्यक्-सर्वज्ञ आज्ञानुसारे छ छ मासे मुनियोए लोच करवो, उपानह (जोडा) पहेरवा नहीं अने पृथ्वी पर शयन-संथारो करवो, तथा रात्रिना बे प्रहर सुधी एटले बीजा अने त्रीजा प्रहोरमां निद्रा लेवी एवं शीयाळे, उन्हाळे शीत तथा उष्ण आदि परीषहो सहन करवा जोइए. "धर्मप्राप्तिनुं कारण" स्पष्टीकरण-बालजीवो सुंदर एवो मुनियोनो बाह्यवेश
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy