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________________ ( ६४ ) रोगीने हितकर होय तेज औषध कांई कफरोगीने हितकर होय एम नहीं, ने कफरोगीने जे हितकर होय ते पीचरोगीने हितकर नज होय. घी तथा दुध पुष्टिकारक छतां कफरोगीने ते आपवामां आवे तो तुरतज तेने अत्यंत अहित पेदा करनार थाय छे, ने साकर पित्तरोगीने हानि करनार बने छे. अहीं औषध खोटुं छे अथवा वैद्यग्रंथो खोटा छे एम तो नज कहेवाय, किन्तु वैद्ये रोगनुं निदान कर्या विना अधिकारिने श्राप्यं एटले वैद्य ने रोगी बन्नेने ते औषध नुकशान करे छे, एज वात श्रापणे सामान्य अनुभवथी स्वीकारी शकीये. एवं सर्वज्ञकथित शास्त्रो अने तदुक्त उपदेश बन्ने सत्य अविसंवादी महदुपकारि छतां बाल आदि जीवोनी योग्यतानुं निदान कर्या विना ने आपवानुं साहस उपदेशक श्राचार्य करे तो मां शास्त्र अने उपदेशमो दोष छे, एवं बुद्धिमानो तो न कही शके. परमार्थ के — एवं कथन नितान्त असत्य ज गणाय. खरी बात तो ए छे के उपदेशकनी गफलती या अज्ञानता ज कहेवी जोइये तेमज सर्वज्ञशास्त्रमां ए तो अवश्य प्रतिपादिन कर्यु छे के – “ श्रा सर्व उपदेश श्र धिकारीनी योग्यता प्रमाणे आपवो " श्राम छतां तेनी बेदरकार करी अधिकारीने तत् तत् प्रकारनो उपदेश आपवा साहस करवो ए शुं उचित गणाय खरो १ धावा उपदेशने श्री सर्वज्ञनो उपदेश छे एवं कयो बुद्धिमान् कही शके १ अर्थात् ए तो उपदेशकना मस्तकनो फांटोज कहेवाय, एटले, - 46
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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