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________________ ( ३८२ ) गुणना स्मरण मात्रथी स्व-आत्मामां परमात्मानो आरोप अथवा तो परमात्मानुं चित्र केम न खडं करी शके ? अवश्य करी शके.आथी ज उपाध्यायजी उपरोक्त शंकाना समाधानमा जणावे छे के-प्रतिष्ठित देवना एकाद मुख्य गुणनुं ध्यान करवाथी विचक्षण आत्मा स्वात्मामां देवना सर्व गुणोनो आरोप करी “हुं पण आ सर्व गुणवान् परमात्म स्वरूप छु, परमात्मा अने मदीय आत्मामां किंचित् पण विषमता नथी, जे गुणो परमात्मामा छे ते ज गुणो मारा आत्मामां तिरोभावरूपे रह्या छे, यदि तेज गुणो आविर्भावने पामे तो हुं अने परमात्मामां भेद रहे नहीं." आ स्थितिनो अनुभव करी शके छे. परिणामे परमात्मानी स्थापना यथावत् स्वात्मामां वचनानुष्ठानकारी अवश्य करी शके छे. अत्र महर्षिओ ध्याता अन्तरात्मा, ध्येय परमात्मा अने अन्तरात्मानी परमात्मा साथे ऐक्यता ते ध्यान-आ त्रिपुटीनो संयोग थया पछी अंतरात्मा पोतानामां परमात्मभावनी प्राप्ति अथवा प्रतिष्ठा करवा अवश्य भाग्यवान् थाय छे, एम खुल्लु जणावे छे. एटले निर्मल स्फाटिकमां जेम दृष्टानुं तद्वत् प्रतिबिम्ब प्रतिभासमान थाय छे तेम निर्मल अन्तरात्मरूप स्फाटिक रत्नमां परमात्मानुं प्रतिबिंब पण आविर्भूत थाय छे. आ विषयनो सुबोध करवा महर्षिओ एक सुंदर दृष्टांत पण आपे छे. “ कीटिका भ्रमरी ध्यायन् भ्रमरित्वमुपजायते " " भ्रमरीतुं एकाग्र ध्यान करवाथी कीडो जेम भ्रमरीभावने प्राप्त थाय छे" उपाध्यायजी ज्ञानसार
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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