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________________ ( ३५४ ) - रीत्या ते पोते मालीक नथी भने न्यायबाह्य छे, तेनी मालिकीपणुं अने फल- प्रार्थना पोते करवी ए तो सर्वथा अयोग्य ज कहेवाय तेमज शास्त्रनिषिद्ध वर्तन गणायः माटे बिंब करावनारे ए भावना भाववी के " मा धनमां जे अन्यायी - अनुचित धननो अंश होय तत् धनजन्य शुभ फल जेनुं धन होय तेनेज हो भने मारा धननुं शुभ फल मने मळो; परंतु परकीय धननुं फल हुं इच्छतो नथी." यावा विचारो करवापूर्वक कारीगरद्वारा मूर्त्ति कराववी. या प्रमाणे स्वहृदयमां भावना श्राविर्भूत करवी तेनुं नाम शास्त्रकर्त्ता अहीं भावशुद्धि उपदेशे छे. आ परथी पोताने त्यां कोइनी थापण होय अने तेनो मालिक देहान्त थयो होय, कोइए शुभकार्यमा व्यय करवा पोताने त्यां राखेल होय, स्वकुटुंबमांथी आवेलुं होय, व्यापारमां घराक पासेथी धर्मना नामे अधिक लीधुं होय, एक वखत शुभखाते खरचवा अमुकनी पाछळ कां होय, निधानमांथी मन्युं होय - आ आ अनेक धन होय श्रने ते धननुं पोते स्वामीत्वपणुं स्वीकारी तेनाथी जिनबिंब आदि पवित्र कार्यों करी तेना फलनी पोते इच्छा करे, में कर्यु एवं माने, पोताने कृतकृत्य माने ए सर्व अनुचित भने न्यायबाह्य शास्त्रकार दर्शावे छे. एटले जे धनमां श्रन्यायनो - अनुचितपणानो - परकीयत्वनो अंशमात्र न होय किन्तु केवल न्यायी, स्वस्वामीत्ववालुं होय तेवा धनथी ज
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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