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________________ (३३४ ) अदुष्ट छे. निदान ए के-जे विधान सर्वज्ञशास्त्रविहित होय ते जरुर अदुष्ट ज होय, ए ज वातनी पुष्टि उपदेशरूपे पांच सो ग्रंथकर्ता अने पूर्वधर श्रीमान् उमास्वाती महाराज पोताना ग्रंथमां कहे छः “ यस्तृणमयीमपि कुटी कुर्याद द्यात्तथैक पुष्पमपि । भत्तया परमगुरुभ्यः पुण्योन्मानं कुतस्तस्य ॥ १॥ जिनभवनं जिनबिंवं जिनपूजां जिनमतं च यः कुर्यात् । तस्य नरामरशिवसुखानि करपल्लवस्थानि" ॥ २ ॥ “जे कोइ मनुष्य भक्ति अने श्रद्धाथी वीतरागदेवने एक घासनी झुपडी तथा एक ज पुष्प भेट करे तो पण तेना पुण्यनुं प्रमाण थइ शके नहीं एटलं पुण्य बंधाय छे, तेम ज जे मनुष्य भक्ति अने श्रद्धावडे एक जिनमंदिर बंधावे, एक जिनप्रतिमा भरावे, जिनपूजा करे अथवा जिनमत आराधे तो ते मनुष्य मनुष्य, देवता अने मोक्षना सुखोने हस्तगत करे छे." ए रीते शास्त्रविहित होवाथी जिनमंदिर क्रिया निर्देषण आचार्य भगवान् दर्शावे छ, एटले जिनमंदिर बंधाववामां द्रव्य अथवा भावहिंसा पैकी कोइ पण हिंसा लागती नथी, किन्तु हिंसानिवृत्तिरूपी फल अर्पण करी एकान्त कर्मनिर्जराकारक बनी उत्तरोत्तर पुण्यानुबंधी पुण्यनो बंध करावनार ज थाय छे. प्राथी जेभो जिनमंदिर बांधवामां जिवहिंसा लागे छे एवो जे उप. देश करे के तेत्रो एकान्त व्यामोहित अथवा शास्त्ररहस्यना अज्ञात छे एम समजवू जोइए.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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