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________________ (३२३ ) विधि, शुद्धि तथा जिनाज्ञापालनपूर्वक करवाथी ते भावपूजागर्भित कहेवाय छे. आथी ज अहीं द्रव्यपूजारूप जिनमंदिरने शास्त्रकाए भावयज्ञ-भावपूजामां गण्यु. निदान ए के-जिनमंदिर भाववृद्धिनुं साधन होवार्थी अने भावपूजानुं अंग होवाथी कार्यमां कारणनो आरोप करी तेने भावपूजा मानवामां कांड विरोध देखातो नथी. गृहस्थने आ कार्यनो अधिकार होवाथी गृहस्थ माटे पोतानी जींदगीनु मुख्य फल-परमफल शास्त्रकारो जिनमंदिर बंधावq ते जणावे छे; कारण के ा जन्मोपार्जित धननो आवा मार्गामां व्यय करवा सिवाय बीजुं कांई पण सारभूत साधन नथी. एटलुं नहीं परंतु गृहस्थ ा कार्य करवाथी, तुच्छ धननो आ मार्गोमां व्यय करवाथी अभ्युदय एटले कल्याण तेनी परंपरा पामे छे अथवा अभ्युदय एटले स्वर्गनी वितुल संपत्ति जन्मांतरमां प्राप्त करे छे ने छेवटे निश्चयथी मोक्ष पण पामे छे. आथी आ जिनमंदिररूप कार्यने अपवर्गर्नु बीजभूत गण्यु. बीज वाव्या पछी तेना हजारो फलो अने घास अप॑ छे तेम आ मंदिर बंधाववारूप कार्य पण परिणामे ऐहलौकिक राज्यादि पारलौकिक स्वर्गसंपत्ति अर्की मोक्षदाता बने छे; माटे तेने बीज तुल्य शास्त्रकर्ताए मान्यु. आ प्रमाणे “ जिनभवन " नी शुद्धिरूप विधि अहीं विस्तारथी दर्शावी. हवे आ संबंधमां विशेष वक्तव्य शास्त्रकर्ता जणावे छे.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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