SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३१०) चित न देखाय तेवी रीते मंगाववा. पारीतना ज पदार्थों मंदिरना कार्यमां उपयोगी थाय, आथी उलटी रीते करवाथी प्रविधि लागे, कुशलाशयनी हानी थाय तेम ज लोकोमां जैनधर्मनी निंदा थाय. यदि मंदिर अर्थे काष्ठनी आवश्यकता होय तो ते केवा लेवा ? ए दर्शावे छे. दार्वपि च शुद्धमिह यत्नानीतं देवताद्युपवनादेः॥ प्रगुणं सारवदभिनव मुच्चैर्ग्रन्थ्यादिरहितं च ॥६-८॥ मूलार्थ:-काष्ठो पण अहीं शुद्ध प्रयत्नपूर्वक देवतामनुष्य संबंधी उपवनमाथी सरल, सारभूत, नवीन अने सर्वथा गांठ आदि दोष विनाना आवेला होय ते ज मंदिरना उपयोगमां लेवा. " स्पष्टीकरण" मंदिर माटे जो लाकडानी आवश्यकता होय तो ते पण न्यायथी अने सम्यक् प्रयत्नथी लाववा. आ पण जे वनमां देवता अधिष्ठित होय, मनुष्य अगर जानवरनी मालिकीनु होय, तेश्रोने संतोषी, पूजा आदि अपी ते वनमांथी लेवा अथवा वननी नजीकना कोइ सुंदर वृक्षो होय तेमांथी लेवा; परंतु श्रा
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy