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________________ ( ३०१ ) गुरुसेवा, दानादि कार्योंमां लक्ष्मीनो नित्य व्यय, विशिष्ट फलदायी कार्योंमां ग्रह राखवो अने प्रमादनो त्याग करवो, घणा लोकोम रूढ तथा अविरुद्ध लोकव्यवहारनुं पालन करवुं, स्वपक्ष अथवा परपक्षमां एटले स्वजाति के परजाति, स्वकुटुंब के परकुटुंबमां सर्वत्र उचित श्राचारनुं पालन कर अने लोक परलोकमां निंदनीय कार्यों प्राणो नाश पामे तो पण करवा नहीं. " आ सर्व धर्मीयोना सज्जनोना सदाचारो शास्त्रमां का छे. या सदाचार जेमां होय ते आत्मा अने' गुर्वादिमतः ' माता, पिता, वडिलो, राजा, अमात्य आदि सर्वने माननीय होय ते ज पुरुष जिनमंदिर बंधावी शके अर्थात् ते हीं अधिकारी मान्यो छे. आाथी ज प्राचार्यदेवे ' अधिकारीति ' ए अंतिम पदथी आवो मनुष्य बिनभवन बंधवाने अधिकारी समजवो एम स्पष्ट निर्देश करे छे. अहीं ग्रंथकार अंतमां ' इति ' पदथी ध्वनित करे छे के - शास्त्राज्ञाथी परमशुद्ध अने अधिकारी या पांच विशेषणविशिष्ट आत्मा ज होय. आ परथी लेभागु अने केवल धनवानो जे कोई पवित्र कार्यना हक्कदार बनी जइ लाखोना खर्चथी जिनमंदिरादि बनाववानो लाहो लेवा तत्पर यह जाय छे अने उपरोक्त गुणो के शास्त्रीय आज्ञा तरफ ख्याल सरखो नथी करता ए कोइ पण रीते योग्य नथी. उपरोक्त योग्यता प्राप्त करी, तेने लक्ष्यमा राखी यदि जिनमंदिरो बंधावाय तो शास्त्राज्ञाना संरक्षण साथै परम कल्याणरूप इष्टफल नितान्ततया स्वपरने प्राप्त थाय ज.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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