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________________ ( २९७ ) योग्यता श्रववाथी या आत्मा जिनमंदिर अन्य कारीगरो पासे करावे. ते पण जेम तेम नहीं, किन्तु पोते सिद्धान्तप्रेमी होवाथी ' विधिवत् ' शास्त्रमां जे विधिथी अने जेवी योग्यता प्राप्त कर्या पछी करवानुं जणाव्युं ते प्रमाणे बनावे, एटलं ज नहीं परंतु पोते स्वयं जिनभवनमां जे जे साधनो - बाह्य अथवा आभ्यन्तर साधनो - जोइए तेनुं संपादन करे अर्थात् खरी लायकात प्राप्त करे. आ प्रमाणे वर्तन करवाथी शुं फल थाय १ ते ग्रंथकार उत्तरार्धथी जणावे छे. पटले उपर का प्रमाणे ' लोकोत्तरतस्व ' प्राप्त थवाथी योग्यता भावे अने तेथी- 'अधिकार्यारंभकत्वेन ' खास अधिकारी शास्त्रोक्त योग्यतावालो आत्मा या जिनमंदिर विधिपूर्वक बनावे छे, एटले अतिशय महान् उत्कृष्ट फल जे मोक्षफल अथवा तीर्थकर - गोत्रबंधरूप फल अगर निर्दोष सम्यक्त्वरूप फल निदानतया तेने उपलब्ध थाय छे. लोकमां आचार्यदेवे ' लोकोत्तरतत्त्व ' मळ्या पछी शास्त्रोक्त अधिकारीपशुं प्राप्त करी अन्य पासे जिनमंदिर करावे अने पोते जिनमंदिर योग्य बाह्य तथा आभ्यंतर पवित्र साधननुं संपादन करे तेम क. अतएव शास्त्रमां केवा गुणवालो जिनमंदिर कराववाने योग्य गण्यो छे ? ए प्रश्ननो खुलास ग्रंथकर्ता अहीं करे छे. न्यायार्जितवित्तेशो, मतिमान् स्फीताशयः सदाचारः ॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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