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________________ ( २८०) मनुष्य जिनवचनना अर्थो तथा भावो स्वकल्पनाथी ज उभा करे, एटले जिनवचननो अमूल्य भाव पामी शके नहीं तेमन जिनवचननी पण ते दरकार करे नहीं. अतएव गुरुवचनाराधक जिनवचनना परमार्थने पामे अने तेथी दानादि कार्योनी विधिसेवा पण आज मनुष्य पामे एम आचार्ये कह्यु. फरी विधिसेवाप्राप्त मनुष्य दान आदि कार्यो औचित्यतापूर्वक ज करे अर्थात् अनौचित्य व्यवहारने बाजु पर करी दीन, अनाथ, अपंग, मुनियो विगेरेने जे विधिथी, जेवा सत्कारथी अने जेवा आदरभाव तथा भक्तिथी दान आपq जोइए ते प्रमाणे वर्तन करे छे. निदान ए के-सर्वत्र विवेकपूर्वक दानादि कार्यो करे छे. ए प्रमाणे आगमवचनमां अभ्रान्तमति गुरुआज्ञानुसारी विधिपूर्वक दानादि कार्यों आराधे एम आचार्य श्रा श्लोकमां स्पष्ट प्रतिपादन कर्यु. एटले विधिना अर्थीए अहीं आगमबोधनी अथवा गुरुधाज्ञा आराघवानी निश्चित प्रावश्यकता छे ए भाव जणाव्यो. दानादि कार्योमां विधिसेवानी आवश्यकता जणावी, हवे तेमां महादान तथा दान ए बेमां क्यो तफावत छे ते वात अहीं दर्शावे छे. न्यायात्तं स्वल्पमपि हि, भृत्यानुपरोधतो महादानम् ॥
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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