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________________ ( २७८ ) या मनुष्य दानादि कार्यों अविधि भावथी करे नहीं. विधि एटले शास्त्रमां जे न्याय दर्शाव्यो होय ते न्यायथी सेवाआचरण ते विधिसेवा. परमार्थ ए के - न्यायोपार्जित धनथी वेल पदार्थनुं सत्पात्रमां दान करवुं तेमज जिनपूजा विगेरे कार्यों करवा एम आगममां कहुं छे. "नायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाइदव्वाणं पराए भत्तीए आयाणुगाहबुद्धीए संजयाणं दाणं अतिहिसंविभागो मुक्खफलो ” “ न्यायथी आवेल ने साधुने उपयोगमां आवे तेवा अनाज पाणी आदि पदार्थों उत्कृष्ट भक्तिथी अने स्वआत्मानो उद्धार करवानी बुद्धिवडे साधुओने आपवा अथवा तिथिसंविभाग करवो ते मोक्षफल आपनार थाय. " थी विरूद्ध प्रवृत्ति करनार दानादि कार्यों करे तो पण तेनाथी मोक्षफल न पामे, किन्तु " दानेन भोगानाप्नोति " ए वाक्यथी भोग्य पदार्थो जन्मांतरमां प्राप्त करे. धनासार्थवाहे अने ग्रामना ठाकुरे मुनियोने शुद्ध दान प्राप्युं तेथी ते ज जन्ममां ते समकित पाम्या तथा तीर्थंकरगोत्र बांध्यं. ए दान परम शुद्ध अने शास्त्रोक्त विधिवालुं कां छे. ज्यारे शालिभद्र तथा धन्ना कुमारना जीवे पूर्व भवमां मुनियोने जे दान प्राप्यं ते उपयोगी भक्तिपूर्वक प्राप्युं खरं, परंतु स्वात्मोद्धार दृष्टि वगरनुं अने न्यायागत न होवाथी या दान तुरतमां भोग्य पदार्थ देनारुं थयुं, पण ते जन्ममां समकित आपनारुं न थयुं. आथी ज शास्त्रोमा अल्प पण दानादि कार्यो न्यायोपार्जित वित्तवडे ज शुद्ध कला, पण अन्यायी द्रव्यथी वधु पण
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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