________________
(२७३ )
दश संज्ञाओ ज छे. प्रतएव अहीं ग्रंथकारे मूलमां 'योगे सति ' ए पदथी ' निरोध करवानो योग-संबंध छते ज ' एम कहुँ. म छतां एटले दश संज्ञाश्रनुं जोर छतां कोइ आत्मा त्यागभावरूप सदनुष्ठान आदरे तो पण नंदिषेण महात्मानी माफक कालांतरे जरुर मागथी नीचो सरी जाय एमां शंका नथी. आाथी अहीं अविकल सदनुष्ठान प्राप्ति माटे श्र सज्ञानो निरोध मुख्य बताव्यो, अर्थात् श्रार्यामां कहेल अविकलं ' ए पदनो उपरोक्त परमार्थ छे.
"
आटलं छतां पण फरी क्यो आत्मा अविकल सदनुष्ठान पामे तेनी पुष्टि माटे अर्धी श्रार्या ग्रंथकार जगावे छे. एटले जेगो दशे संज्ञानो यथाशक्ति रोध कर्यो होय, रोध करवानो उत्साह धार्यो होय तो पण या त्रण गुणो न होय तो ते आत्मा अविकल सदनुष्ठान पामवानो अधिकारी नथी; किन्तु जेथो परोपकार करवानी अभिलाषावंत होय अने पूर्वे कहेल गांभीयता, औदार्यता ए वे गुणो ओमां होय तेत्रो ज या मार्गना अधिकारी बने छे. निष्कर्ष ए के के-दशे संज्ञानो यथाशक्तिए शेध कर्या पछी परोपकारी उदारदिल अने गंभीराशय प्राणी ज अविकल सदनुष्ठान पामे.
अरे ! दुर्लभ पण दश संज्ञानो रोध थाय शाथी १ जेथी आत्मा अविकल सदनुष्ठाननो अधिकारी बने ए भावने जगावे छे.
१८