SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५४) " मोक्खासो वि न तत्थ० " इत्यादि श्लोकथी पण जणाववामां आवे छ के-" मोक्ष पामवानी जिज्ञासा पण अन्य कालमां होय नहीं." ज्यारे मोक्षनी जिज्ञासा न होय तो पछी मोक्षना बीजभूत समकितप्राप्ति त्यां क्यांथी संभवे ? अतएव ग्रंयकर्ताए तेनो निषेध कर्यो. अन्त्य पुद्गलपरावर्त्तकाल शाथी थाय ? या प्रश्ननां समाधान अर्थे ग्रंथकार आ प्रमाणे अहीं जणावे छे. स भवति कालादेव प्राधान्येन सुकृतादिभावेऽपि । ज्वरशमनौषधसमयव दिति समयविदो विदुनिपुणम् ॥५-३॥ मूलार्थ जेम औषध ज्वरनो नाश करनार छतां पण समयपरत्वे ज ज्वर शान्त थाय छे एवं कर्म, पुरुषकार, नियति विगेरे कारणो छतां पण या अंत्य पुद्गलपरावर्त प्रधानतया कालपरिपाकथी ज स्वरूपतः बने छे, एम समयज्ञो निपुणतया जाणे छे. " स्पष्टीकरण" मोक्ष प्रति इच्छा पण अंत्य पुद्गलपरावर्तकाल सिवाय न थाय" एम प्रथम कही गया एटले अात्माने संसारमा अनादिथी पर्यटन करतां ज्यारे अंतिम-एक ज पुद्गलपरावर्तकाल बाकी रहे त्यारे ज तेने मोक्षनी अभिलाषा जागे अर्थात्
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy