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________________ ( २४६) तेने ओळखावनार मा "औदार्य" आदि पूर्वे कहेल जिनप्रणीत लिंग जाणवं, तेमज उत्तरोत्तर पुण्यना उपायो प्राप्त करावी पुण्यादिना निष्पत्तिसाधनमां अबाधित-अवंध्यफलजनक प्रतिष्ठित कारण पण आ" औदार्यादि "ज लिंगो छे. " स्पष्टीकरण" ा प्रकरणनी आदिमां ज कही चूक्या के-धर्मी आत्मामोने व्यवहारथी भोळखवाना खरा साधन तरीके "औदार्य" अादि अंतःकरणमां उछळता पवित्र आशयो छे, कारण के मनुष्य मात्रनुं खरं-खोटुं स्वरूप समजवा माटे तेना व्यवहारो पर ज आधार राखी शकाय, अने व्यवहार-पवित्रता हृदयनी उच्च-नीच वासना पर अवलंबी रहे छे. अतः ग्रंथकर्ताए अहीं पूर्वे जणाव्या प्रमाणे धर्मसिद्धिमान् आत्मानी परीक्षा माटे "औदार्य" आदि पांच प्राशयो बताव्या. आ आशयोनुं विस्तृत स्वरूप समज्या पछी गमे तेवो सामान्य जन पण पोतानी अने परनी, स्वपरना व्यवहार परथी, धर्मीपणानी कसोटी निकाली बके तेमज पोताने खोटी रीते अथवा अज्ञानताथी धर्मी मानतो होय तो ते मान्यताने बदली शके. आ. हेतुथी " औदार्य" आदि पांच आशयोने धर्मना लिंगो-चिह्नो कह्या. अहीं ग्रंथकर्ताए 'जिनप्रणीतं ' ए पदथी सर्वज्ञोए आ लिंगो-चिह्नो जणान्या छे, एम कही सर्वज्ञकथनना आधारे या सर्व स्वरूप कमु छे; पण स्वमतिथी उपजावीने काइ पण कथन कयुं नथी र भाव दर्शावे छे. फरी आ " औदार्य " आदि भावो धर्मीप
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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