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________________ ( २४३) प्रवृत्ति करे छे. पा कारणथी श्रा मतिमान् आत्माने ते पापविकारो फरीने कदापि उद्भवता नथी, यावत् धर्मामृतपानना प्रभावथी मैत्री आदि चार भावनामो अवश्य उपजे के. अहीं अमृत खाधा पछी खानारने जन्म-मरण करवा पडता नथी तेम 'धर्म' ने पण अहीं अमृत समान गण्यो छे, कारण के 'धर्म' आत्मामां उतार्या पछी अने अात्मा धर्म साथे अभेदभाव पाम्या पछी जन्म-मरणादि प्रपंचोने करतो नथी माटे धर्मने शास्त्रकर्ताए अमृतरूपे जग्णाव्यो. एवं अमृत खानारने अनेक नूतन उत्तम गुणो पण प्राप्त थाय छे तेम धर्म पामनार पण अहीं तेना प्रभावथी पोतानी सुंदर मान्यतानेतत्वप्रतीतिने स्थिर बनावनार मैत्री आदि चार पवित्र बुद्धि ओने प्राप्त करे छे. आज हेतुथी शास्त्रकर्ताए अमृत साथे धर्मनी तुल्यता करी यथोचित उपमालंकार बताव्यो. श्रीमान् यशोविजयजी उपाध्यायजी स्वकृत टीकामां मैत्री आदि चार गुणोने धर्मना अभ्यासगुणरूप लिंगो जणावे छ, अर्थात् विशिष्ट धर्माभ्यासद्वाराए आत्माने एकांत धर्ममय बनावनारा आ चार गुणो छे. निदान ए के-या गुणो उद्भव्या पछी आत्मा कदापि धर्मभ्रष्ट बनतो नथी. उपरोक्त दोषनो अभाव थवाथी धर्मतत्व प्रात्मा पाम्यो एवं अनुमान बुद्धिमानो करी शके अने पामेला धर्मतत्त्वनी उच्चता तथा वृद्धि करवाने अवश्यमेव मैत्री आदि गुणोनो अभ्यास धर्मीए करवो जोइए. या हेतुथी श्रा गुणो आभ्यासिक गुणो के एवो श्रीमान् उपाध्यायजीना
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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