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________________ ( २२४) विषयसृष्णाने बे विभागमां बहेंची शकायः एक साधारण विषयतृष्णा अने पीजी असाधारण अतिविषयतृष्णा. अधपि बने विषयेच्छाोने पाप ज मानी छे तथा जे विषयेच्छानी पूर्णता करवाने आत्मा पोतानो विवेक अने मर्यादा तोडवापर्यंत नीची दशामां उतरे नहीं तेमज इहलोक परलोकना अकार्योथी समयपणे प्रवृत्ति आदरे तेने साधारण विषयतृष्णा जणावी पापविकारना लक्षणथी बहिर्भूत मानी छे, कारण के आ विषयेच्छा व्रतधारी जैनो तथा सम्यक्त्वधारी आत्माओ पण एकाएक त्यागी शकता नथी अने परिणामे स्वहित साधवाने समर्थ थाय छे. सम्यक्त्व पाम्या पछी भरतचक्रवर्ती चोसठ हजार राणीयो साथे भोगविलास करता हता. चेडाराजा, उदायी महाराज, कृष्णवासुदेव अने श्रेणिकराजा विगेरेना दृष्टांतो शास्त्रमा प्रसिद्ध छे. परमार्थ ए के-धर्म अने प्रात्महितनुं साध्य भ्रष्ट न थq जोइए. आ विषयेच्छा पण आसक्ति अने अनासक्ति भेदोथी बे प्रकारनी जाणवी. तीर्थकर विगेरेना जीवो मति-श्रुतअवधिज्ञानवंत छतां जे अमुक वर्षों पर्यंत गृहवासमां रही राजभोग, भोगविलासो सेवता हता ते मात्र उदयगत कर्मोना फलोनी विचित्रता जाणीने तेना अनुभवार्थे ज भोगवता अर्थात् अनासक्तिपणे रह्या इता. अने ज्यारे कर्मोदय शांत थयो एटले तुरतज वस्त्रांचले लागेल तृण नी माफक सर्व भोगनो त्याग करता. तेमज नेमनाथ प्रभुए कर्मोदय न होवाथी गृहवास सेव्यो नहीं, ए ज अनासक्त विषयेच्छानी अवधि जाणवी. वासुदेव,
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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