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________________ ( १८० ) अाम छतां यदि स्वात्मा अनुकंपाहीन होय, दुःखीमोनो पेली परोपकारी न होय तो ते धर्मनी सिद्धि करी शकतो नथी माटे अहीं ग्रंथकर्ता वधु विशेषण प्रापी खुलासो करे छे के-'हीने दयादिगुणसारा' पोतानी अपेक्षाए न्यूनगुणी जनो पर अनुकंपा-दयाभाव राखवो, अर्थात् गुणहीन मनुष्योनी प्रवृ. त्तिो देखी तेना पर द्वेष न करवो किन्तु तेओना पर दयाना विचारो करवा. एटले ते लोको पण गुणवान बने तेवी भावना ताँ मरणभयथी निडरता, हास्ये आदिनो त्याग करवो. 'अदत्तादानविरमण' व्रतना रक्षण माटे-विचारपूर्वक शुद्ध स्थाननी याचना, जरुर होय त्यारे अवग्रहनी याचना करवी पण पहेलाथी संग्रह न करवो, मानोपेत वस्तुनी याचना करवी,.. एक गच्छना मुनिओ पासे जन्यानी याचना करवी, गुरु आज्ञाथी पान भोजन लेवा. मैथुनविरमणव्रत' माटे-ज्यां स्वीओ, पशुओ, नपुंसको रहेता होय एवा स्थाननो त्याग करवो, स्त्रीयो साथे प्रेमालाप न करवो, कामिनीयोनुं रूप इंद्रियोनुं अवलोकन न करवू, पँथम सेवेल भोगादिनुं स्मरण न करवू, स्निग्ध पदार्थोंनो त्याग करवो. 'परिग्रहविरमण' व्रत माटे पांचे इंद्रियोना इष्ट विषयो पर मोह अने अनिष्ट विषयो पर द्वेष न करवो. आ प्रमाणे नित्य भावनाओनो अभ्यास करवाथी आत्मा महाव्रतोने अविचलपणे पाली शके छे ने लेश पण विघ्नो उद्भवता नथी माटे ज आने महाव्रतोनी भावनाओ कही. पुनः पुनः अभ्यास करवो, विचारवं, ध्यान करवू तेनुं नाम
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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