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________________ ( १७५ ) मध्यम विघ्नो धर्ममां प्रवृत्ति करवानी प्रात्मानी इच्छाओने मंद करे छ; किन्तु प्रात्माने सर्वथा धर्मभ्रष्ट करी मिथ्यात्वना मार्गे घसडी शकता नथी. एटले ते विघ्नो अहीं सामान्य कोटीना जणाव्या ज्यारे मोहजय नामे उत्कृष्ट विघ्न तो आत्माने अवळा मार्गमां उतारी नाखे छे, एटले आ विघ्नने नाश करवानुं सामर्थ्य जेमां होय ते आत्मा कदापि प्रथमना ते प्रकारना विघ्नोथी पराभूत थतो नथी, अने उपरना बने विघ्नोथी जे पराभव पामे ते तो निश्चयेन त्रीजा नंबरना विघ्नथी पराभूत थाय ज. अतएव आ विघ्न जीतवानी शक्ति प्राप्त करवी अधिक आवश्यक गणाय, कारण के प्रथम कह्या प्रमाणे धर्ममां गति करनारने विघ्न तो जरुर श्रावे; माटे विघ्नोथी डरी धर्ममां गति न करवी या तो धर्म छोडी देवो तेनुं नाम धर्मीपणुं न ज कहेवाय किन्तु खरी रीते विघ्नोनी सामा थइ धर्माराधन कर, ते ज सत्य धर्मीपणुं कहेवाय अने तो ज 'प्रवृत्ति ' नामक आशयनुं फल प्राप्त थयुं बराबर गणाय. अर्थात् आ 'विघ्नजय' करवो ए अहीं ' प्रवृत्ति' आशयनुं प्रधान फल गण्यु के. आथी ज मूलकाए कडं प्रवृतिफलः.' संक्षेपमां-उपर कह्या प्रमाणे जेमो विघ्नोनो विजय करी धर्ममा 'प्रवृत्ति' करे तमोमां मुख्य रीते 'प्रणिधान, प्रवृत्ति' भने 'विघ्नजय' आ प्राशयोनोआविर्भाव थयो के एम प्रवृत्तिद्वाराजाणी शकाय. "ए रीते विघ्ननो जय कर्या पछी अवश्य प्रस्तुत धर्मनी सिद्धि याय, अतः 'सिद्धि' नामे चतुर्थ आशयनु स्वरूप ग्रंथकर्ता अत्रे दर्शावे के."
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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